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पुनर्जन्म सिद्धान्त : प्रमाणसिद्ध सत्यता
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सब क्रियाकलाप पूर्वजन्म की सूचना देते हैं। क्योंकि इस जन्म में तो तत्काल उसने ये सब बातें सीखी नहीं। पूर्वजन्म के अभ्यास से ही ये सब बातें उसमें स्वाभाविक ही होने लगती हैं। पूर्वजन्म में अनुभूत सुख-दु:खों का स्मरण करके ही वह हँसता और रोता व भयभीत होता है । पूर्व में अनुभव किये हुए मृत्यु भय के कारण ही वह कांपने लगता है तथा पूर्वजन्म में किये हुए स्तन्यपान के अभ्यास से ही माता के स्तन का दूध खींचने लगता है। इन सब प्रवृत्तियों से पूर्वजन्म की ही सिद्धि होती है।
पूर्वोक्त प्रमाणों से पुनर्जन्म की सिद्धि हो जाती है तथा आये दिन सामयिक पत्र-पत्रिकाओं में पुनर्जन्म सम्बन्धी समाचार पढ़ने में आते हैं। जो पुनर्जन्म के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं । फिर भी वर्तमान शरीर तक ही आत्मा का अस्तित्व स्वीकार किया जाये तो अनेक नये-नये प्रश्न पैदा हो जाते हैं, जिनका समाधान पुनर्जन्म न मानने पर व्यक्ति का उद्देश्य इतना संकुचित और कार्यक्षेत्र इतना सीमित हो जायेगा कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। चेतना की मर्यादा वर्तमान शरीर के अन्तिम क्षण तक मान लेने से व्यक्ति को महत्वाकांक्षा तो एक तरह से छोड़ देनी पड़ती है। क्योंकि मैं सदा कायम रहूंगा, इस जन्म में न सही, लेकिन अगले जन्म में अपना उद्देश्य अवश्य सिद्ध करूंगा-यह भावना मनुष्य के हदय में जितना बल व उत्साह प्रगट करती है, उतना बल व उत्साह अन्य कोई भावना प्रकट नहीं कर सकती है। इस भावना को मिथ्या नहीं कहा जा सकता है और न यह मिथ्या है । उसका आविर्भाव स्वाभाविक एवं सर्वविदित है।
पुनर्जन्म : विभिन्न दर्शनों का दृष्टिकोण पुनर्जन्म है, पुनर्जन्म होने का क्या कारण है और पुनर्जन्म मानने से क्या लाभ है आदि की संक्षेप में जानकारी कराने के बाद अब विभिन्न दर्शनों व धर्मों का पुनर्जन्म संबंधी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। सभी आत्मवादी दर्शनों ने पुनर्जन्म को निर्विवाद सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया है अत: उनके विचारों को संक्षेप में और एक जन्मवादी होकर भी पुनर्जन्म मानने के लिये प्रेरित हुए दर्शनों के दृष्टिकोण का कुछ विशेष रूप में उल्लेख किया जा रहा है।
पौर्वात्य दर्शनों और धर्मों में वैदिक, बौद्ध और जैन ये तीन प्रमुख हैं। सांख्य-योग-वैशेषिक आदि वैदिक दर्शन के उपभेद हैं। इनके मूल आधार वेद, ब्राह्मण और उपनिषद् ग्रन्थ हैं। उपनिषदों में जो कुछ भी वर्णन किया गया है, उसका लक्ष्य आत्मा और उसकी विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान करना है। उनमें आगत चिन्तन और कथानक आत्म विचार के चित्र हैं, जिनसे पुनर्जन्म सिद्धांत की ही पुष्टि होती है । लेकिन वेदों में भी ऐसी ऋचायें हैं, जिनसे पुनर्जन्म सिद्धांत की पुष्टि हो जाती है । जैसे कि ऋग्वेद १०१५९६७ में बताया गया है कि परमात्मा प्राण रूप जीव को भोग के लिये एक देह से दूसरी देह तक ले जाता है । अत: प्रार्थना है कि वह हमें अगले जन्मों में सुख दे, ऐसी कृपा करे कि सूर्यचन्द्र आदि हमारे लिये कल्याणकारी सिद्ध हों। अथर्ववेद तो ऐसे मन्त्रों से भरा पड़ा है कि जिनसे पुनर्जन्म सिद्धांत पर किसी न किसी रूप में प्रकाश पड़ता है। उनमें कहीं तो आगामी जन्म में विशिष्ट वस्तुएँ पाने की प्रार्थना की गई है तो कहीं यह कहा गया है कि पूर्वजन्म के श्रेष्ठ कनिष्ठ कर्मों के अनुसार ही जीवात्मा नवीन योनियों को धारण करती है। इसके लिये देखिये अथर्ववेद ७।६७११, २१२ । यजुर्वेद ४११५, १९४७ आदि मन्त्रों में जीवात्मा के आगमन की बात कही गई है । वहाँ कहा गया है कि जीवात्मा न केवल मानव या पशु योनियों में जन्म लेती है, किंतु जल, वनस्पति, औषधि आदि नाना स्थानों में भ्रमण और निवास करती हुई बार-बार जन्म धारण करती है।
सांख्यदर्शन में बताया है कि जो रसादि की अनुभूति करता है, पूर्वकृत को भोगता है और जो अतीत में था एवं वर्तमान में भी है, वही आत्मा है । उसके किए हुए कर्म नष्ट नहीं होते हैं और वे बाद में भी फल देते रहते हैं। सभी कर्मों का फल तत्काल नहीं मिल जाता है, इस जगत में जो कर्म किये हैं उनका भोग यहीं समाप्त नहीं हो जाता है । इसीलिये शेष कर्म फल भोग के लिये दूसरा जन्म होता है और लिंग शरीर (सूक्ष्म शरीर) ही एक दृश्य देह को छोड़कर दूसरा शरीर धारण करता है। न्यायदर्शन भी यही कहता है कि आत्मा के नित्य होने से जन्मान्तर की सिद्धि हो जाती है । अथवा यों भी कह सकते हैं कि जन्मान्तर होने से आत्मा की नित्यता सिद्ध है-आत्मनित्यत्वं प्रेत्य भाव सिद्धि (न्यायसूत्र ४।१।१०) और जन्मान्तर का कारण है पूर्वकृत कर्मों के भोग के लिये जन्मान्तर, पुनर्जन्म मानना ही पड़ेगा-पूर्वकृत फलानुबंधनात्-तदुत्पत्तिः (३।२।६४) । जब मनुष्य शरीर का त्याग करता है, तब इस जन्म की विद्या, कर्म, पूर्व प्रज्ञा या वासना आत्मा के साथ जाती है और इसी ज्ञान एवं कर्म के अनुसार नवीन जन्म होता है । योग दर्शन की पुनर्जन्म विषयक दृष्टि का पूर्व में संकेत किया जा चुका है तथा यह आत्मा, इन्द्रियों और अहंकार तीनों को व्यापक मानता है और अहंकारादि से युक्त वासनाओं के कारण ही फलोपभोग के लिये पुनर्जन्म होता है।
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