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श्री पुष्करमनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
मीमांसादर्शन में पुनर्जन्म का समर्थन करते हुए जीवात्मा के स्थान पर अतिवाहिक अर्थात् एक शरीर से दूसरे शरीर तक ले जाने वाले देहाभिमानी-देवता का संकेत किया है । वैशेषिक दर्शन आत्मा को सर्वव्यापी मानता है लेकिन पुनर्जन्म के संबंध में उसकी मान्यता है कि मन के द्वारा जो अणु रूप है, एक शरीर से शरीरान्तर की प्राप्ति होती है।
गीता में अनेक प्रसंगों पर परलोक और पुनर्जन्म का प्रतिपादन किया गया है। जैसे कि श्रीकृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं
न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः । न चैव न भविष्यायः सर्व वयमतः परम् ॥ देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमरं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिः धीरस्तत्र न मुह्यति ।।" -~-न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था या तू नहीं या अथवा ये राजा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है कि इससे आगे भविष्य में हम सब नहीं रहेंगे । जैसे जीवात्मा की इस देह में बाल्य, युवा और वृद्धावस्थायें होती हैं, वैसे ही अन्य शरीर की भी प्राप्ति होती है । अतएव इस विषय में धीर पुरुष मोहित नहीं होते हैं।
वेदान्तदर्शन के प्रमुख आचार्य निम्बार्क ने पुनर्जन्म और उसके कारण को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जीवात्मा अजर, अमर और अविनाशी है । किन्तु उसे अपने अनादि कर्मों के अनुसार शरीर प्राप्त होते हैं । उनके द्वारा वह शुभाशुभ कर्मों के फल भोगती है और पूर्व कर्मों के अनुसार कर्म करती है । समय पाकर उनका वियोग हो जाता है। इस प्रकार जब तक जीवों के कर्म एवं उनके संस्कार बने रहते हैं तब तक जन्म-मरण रूपी संसृति चक्र चलता रहता है । पराभक्ति द्वारा कर्मों की निवृत्ति और मुक्ति हो जाने पर पुनर्जन्म नहीं होता है।
पुनर्जन्म के समय जीवात्मा अपने पूर्व शरीर को त्याग कर दूसरे शरीर को इस प्रकार धारण करता है जिस प्रकार कोई जीवित व्यक्ति फटे-पुराने वस्त्रों को त्याग कर नवीन वस्त्र धारण करता है। इस नवीन शरीर को धारण करने के दो मार्ग हैं-१. धूमयान (कृष्ण गति) २. देवयान (शुक्ल गति अचि मार्ग)ज्ञानी जन तो अचि मार्ग से देहान्तर प्राप्ति के लिये जाकर मुक्त हो जाते हैं। उनके कर्मबन्धन समाप्त हो जाते हैं, जिससे उनका पुनर्जन्म नहीं होता है। इष्ट-पूतादि सकाम कर्मों में निरत रहने वाले जीव धूमयान (कृष्णगति) से जाते हैं और पुण्य-पाप का फल भोग कर पुनः लौट आते हैं । इन दोनों मार्गों के अतिरिक्त एक तीसरा मार्ग और है-जायस्व म्रियस्व-अर्थात् प्रतिदिन जन्मना और मरना । यह मार्ग क्षुद्र जन्तुओं का होता है । उनका उत्क्रमण न देवयान से होता है और न पितृयान से । जीवात्मा जब अपने पूर्व स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थूल शरीर में प्रवेश करती है, तब सूक्ष्म शरीर के साथ जाती है और उसके सहयोग से प्राप्त शरीर आदि के योग्य सामग्री का संचयन करने की ओर अग्रसर हो जाती है।
वैष्णवाचार्यों का मन्तव्य है कि अजर, अमर, अविनाशी आत्मा को अनादि अविद्या के कारण होने वाले पुण्यपाप कर्म प्रवाह के फलों को भोगने के लिये देव, मानव, तिर्यक् और स्थावर इन चार प्रकार के शरीरों में प्रवेश करना पड़ता है। उन-उन देहों में प्रविष्ट होते ही जीवात्मा को देहाभिमानी अविद्या और पर-वस्तुओं में स्वकीयत्वाभिमानी अविद्या-अज्ञान मिथ्याभास होने लगता है। उससे कर्म, कर्म से देहप्रवेश और देहप्रवेश से अविद्या इस प्रकार का चक्र अनादि काल से चला आ रहा है । इस चक्र के कारण जीवात्मा को सांसारिकता, दुख आदि भोगने पड़ते हैं।
इन्हीं वैदिक दर्शनों और धर्मों पर आधारित वार्तमानिक विभिन्न पंथों मतों में भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है । जैसे कि रामस्नेही मत में बताया गया है कि जीवात्मा के पुनर्जन्म लेने के साधारणतया निम्नलिखित कारण हैं-१ भगवान की आज्ञा से २ पुण्य क्षय हो जाने पर, ३-४ पुण्य-पाप का फल भोगने के लिये ५-६ बदला लेने और चुकाने के लिये ७, अकाल मृत्यु हो जाने पर, ८ अपूर्ण साधना को पूर्ण करने के लिये।
सिख गुरु गोविन्दसिंह ने अपने दसवें ग्रन्थ में पुनर्जन्म के बारे में बताया है-जीवात्मा अपने कर्मों का फल भोगने के लिए बार-बार जन्म लेती है । पुनर्जन्म का मूल कारण यही है कि जो जैसे कर्म करते हैं वे वैसी योनि प्राप्त करते हैं। मानव योनि प्राप्त कर उत्तम कार्यों के द्वारा आवागमन के बन्धनों से मुक्त होना ही जीव का मुख्य धर्म है। जीव के आवागमन से छुटने का एक ही उपाय है-सांसारिक विषय-वासनाओं से मुक्त होकर शुभ कार्यों को निष्काम भाव से सम्पन्न करना ।
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