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200-09-19
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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
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एक स्वस्थ और बलिष्ठ होता है तो दूसरे का रोग से पीछा नहीं छूटता है जो शक्तिप्रतिमा और विलक्षणता महावीर, बुद्ध आदि में थी वह उनके माता-पिता में नहीं थी । इसी प्रकार के और दूसरे भी उदाहरण दिये जा सकते हैं, जिन पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि ये सब विलक्षणतायें न तो वर्तमान जीवन की कृति का परिणाम हैं और न वातावरण, परिस्थिति आदि का और न माता-पिता के संस्कारों का । यह सब तो गर्भ के समय से भी पूर्व मानने की ओर संकेत करती हैं । वही वर्तमान की अपेक्षा पूर्वजन्म है । पूर्वजन्म में इच्छा या प्रवृत्ति द्वारा जो संस्कार अर्जित किये हैं, उन्हीं के आधार पर इन सब प्रश्नों और विलक्षणताओं का सही समाधान प्राप्त किया जा सकता है। जिस युक्ति से एक पूर्वजन्म सिद्ध हो जाता है तो उसी से अनेक पूर्वजन्मों की परंपरा भी सिद्ध हो जाती है।
३. यह नियम तो सभी जानते हैं और अनुभूत स्थिति है कि क्रिया की प्रतिक्रिया अनिवार्यतः होती है। हमें यह प्रत्यक्ष रूप से अनुभव होता है कि जो जैसा करेगा, वैसा फल उसे भोगना पड़ेगा - 'कर्मायत्त फलं पुंसाम् ' प्रत्येक कर्म का तदनुरूप फल भोगना ही पड़ता है। हमारे जीवन व्यवहार में अनेक प्रकार के कर्म होते रहते हैं, मन, वाणी, शरीर द्वारा निरंतर कर्म प्रवृत्ति होती रहती है । जिनमें से कुछ तत्काल फल देने वाली और कुछ विलंब से और कुछ प्रवृत्तियां ऐसी होती हैं जिनका फलभोग इसी जन्म में नहीं किया जाता है किन्तु जन्मान्तरों में किया जा सकता है। जिसके लिये प्रमाण है तथागत बुद्ध का यह कथन
इत एकनवते कल्पे शक्त्या मे पुरुषो हतः । तस्य कर्म विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः ॥
- अब से इक्यानवे कल्प पहले मेरी शक्ति ( शस्त्र) द्वारा एक पुरुष मारा गया था। उसके कर्म विपाक से है। भिक्षुओ ! मेरा पैर काँटे से बींधा गया है।
४. यह बात तो अनुभव विरुद्ध है कि इह जीवन समाप्त हो जाने के साथ समस्त कर्म भी समाप्त हो जाते हैं, किंतु उसके बदले यह सर्वमान्य सिद्धांत है कि कर्म कभी निष्फल नहीं होता है और न किए हुए कर्मों का फलभोग किये बिना मुक्ति होती है । इस स्थिति में अभुक्त कर्मों का फलभोग जीव कब करेगा या कर सकता है ? तो उत्तर होगा कि जन्मान्तर में उनका फलभोग करेगा । चाहे फिर वह जन्मान्तर निकट भविष्य का हो या उसके बाद का या सुदूर अनागत का और फलभोग के लिये जो भी जन्मान्तर होगा, उसी का दूसरा नाम पुनर्जन्म है ।
५. कोई भी संतान माता-पिता के बिना उत्पन्न नहीं हो सकती है, ऐसा कार्यकारण, जन्य-जनक भाव प्रत्यक्ष सिद्ध है । यदि किसी के माता-पिता जन्मते ही काल-कवलित हो गये हों तो उनके प्रत्यक्ष न होने के कारण क्या उनका अस्तित्व न माना जायेगा ? यदि इसका उत्तर हाँ में दिया जाये तो संतान आयी कहाँ से ? उसका जन्म हो कैसे गया ? यही तर्क पितामह प्रपितामह आदि के संबंध में भी दिया जा सकता है। केवल प्रत्यक्ष से समस्त विश्व के वर्तमान पदार्थ सिद्ध नहीं होते हैं, उनकी सिद्धि के लिये भी जब अनुमान आदि प्रमाण माने जाते हैं तो अतीत अनागत तत्त्वों को सिद्ध करने के लिये अनुमान आदि को मानना ही पड़ेगा ।
६. शरीर की तरह, आत्मा का परिवर्तन नहीं होता है। शरीर में अवस्थानुसार परिवर्तन देखा जाता है। बाल्यावस्था में हमारे सभी शरीरावयव कोमल और छोटे होते हैं, कद भी छोटा होता है, स्वर भी मीठा होता है, वजन भी कम होता है। लेकिन जब युवावस्था आती है तथा हमारे अंग पहले से कठोर और बड़े हो जाते हैं, आवाज भारी हो जाती है, कद लंबा हो जाता है, वजन बढ़ जाता है, दाढ़ी मूंछ आ जाती है। इसी प्रकार बुढ़ापे में हमारे अंग शिथिल हो जाते हैं, शरीर की सुन्दरता नष्ट हो जाती है । बाल काले से सफेद हो जाते हैं, दांत गिर जाते हैं शारीरिक और ऐन्द्रियक शक्ति क्षीण हो जाती है । परन्तु शरीर में होने वाले इन परिवर्तनों के बाद भी आत्मा नहीं बदलती है । जो आरमा पूर्व में थी वही इस समय भी रहती है, उसमें परिवर्तन नहीं होता है और इसका प्रमाण है कि आज से दस बीस वर्ष पहले हमारे जीवन में घटी घटनाओं का भी हमें स्मरण रहता है । यदि आत्मा में भी परिवर्तन हो जाता है तो उनका स्मरण नहीं रहना चाहिये था। इससे मालूम पड़ता है कि स्मरण करने वाले दो अलग-अलग व्यक्ति नहीं हैं, बल्कि एक ही व्यक्ति है । अतः जिस प्रकार वर्तमान शरीर में परिवर्तन होने पर भी आत्मा नहीं बदली, उसी प्रकार मरने के बाद दूसरा शरीर मिलने पर भी आत्मा नहीं बदली है । इससे भी परलोक और पुनर्जन्म होने की क्रमबद्धता सिद्ध होती है।
७. बालक जन्मते ही कभी भयभीत होते देखा जाता है।
रोने लगता है और जन्मने के बाद कभी हँसता है, कभी रोता है, कभी सोता है और जब माता उसे मुख में स्तन देती है तो उससे दूध खींचने लगता है | बालक
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