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प्राणी कर्म करता हुआ जब थक जाता है तो वह कर्मों के भार से थकित होकर हीनता का अनुभव करने लगता है और उस अवस्था में उसके सामने घोर निराशा छा जाती है। लेकिन पुनर्जन्म होने से जीव इस आशा में रहता है कि हमें वर्तमान शुभ कर्मानुसार पुनः सुखोपभोग का अवसर मिलेगा और आत्मबल का संचार होते रहने से वह निरंतर कर्मयोगी की भांति कर्म करता रहता है। वह अपने बारे में विश्वास रखता है कि तू तो अमृत का पुत्र है -अमृतस्य पुत्रा: और उसका लक्ष्य रहता है-उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत तू उठ ! अपनी अनादि अविद्याजन्य मोहनिद्रा को छोड़ और अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान; आत्मज्ञान प्राप्त कर ।
पुनर्जन्म सिद्धान्त: प्रमाणसिद्ध सत्यता ३८५
मरणभय का कारण
जब यह निश्चित है कि नित्य स्वयं प्रकाश ज्ञान ही आत्मा का स्वभाव है, परमानन्द उसका स्वभाव है । मैं सदैव बना रहने वाला हूँ। तब यह प्रश्न होता है कि यदि स्वरूपतः अमर हैं तो हमें मरने से भय क्यों लगता है और सदैव बने रहने की इच्छा क्यों होती है ? प्रियजन के जन्म पर खुशियाँ और मरण होने पर विलाप क्यों किया जाता है ? इसका उत्तर यह है कि अज्ञान, अविद्या, मोह, माया के प्रभाव से हम अपने अजर, अमर, सच्चिदानन्द स्वरूप को स्वप्नवत् समझ कर भूल जाते हैं और दृश्यमान जगत् में सत्यबुद्धि रख कर देहादि अनात्म-पदार्थों के साथ मिथ्या तादात्म्य स्थापित कर बैठे हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि हम अपने अमरत्व को अनात्म-पदार्थों पर आरोपित करके उनको शाश्वत और उनके विनश्वर स्वरूप को स्वयं पर आरोपित करके अपने आपको मरणशील समझने लगते हैं । अज्ञान का तो यह स्वभाव ही होता है । लेकिन स्वानुभव और शास्त्र इस आत्मस्वरूप विषयक अज्ञान को दूर करके सदैव यह आह्वान करते हैं कि हे मानव ! तू न तो मर्त्य है और न जड़ है एवं न निर्यात परतन्त्र है । आत्मस्वरूप सत्यानी त्रिकालाबाधित है। इसीलिये ज्ञानीजनों ने मृत्यु को महोत्सव की संज्ञा दी है और वे मृत्युजयी होकर शाश्वत अमरता को प्राप्त करते हैं ।
अब प्रश्न होता है कि मृत्यु पर विजय प्राप्ति के अपने-अपने विचार व्यक्त किये हैं। लेकिन उन सभी के परित्याग और निराकरण सत्ता की उपलब्धि होने पर मृत्यु और न प्रलय है ।
साधन क्या हैं ? इसके साधन के रूप में विभिन्न विचारकों ने कथन का सारांश यह है कि अनात्मा में आत्मबुद्धि का पर विजय प्राप्त हो जाती है । उस स्थिति में न तो जन्म है
पुनर्जन्म के साधक प्रमाण
उपर्युक्त कथन से अभी तक हम यह समझ चुके हैं कि आत्मा सनातन है, लेकिन जन्म और मरण रूप उसकी स्थिति कर्मकृत है । जब तक निःशेष रूप से कर्मक्षय नहीं हो जाता है तब तक जन्म और मरण का चक्र चलता रहेगा । अब यहाँ कुछ ऐसे प्रमाण व प्रश्न प्रस्तुत किये जाते हैं जिनका समाधान पुनर्जन्म माने बिना नहीं हो सकता है।
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१. हम देखते हैं कि माता-पिता के आचार, विचार, व्यवहार, पारिवारिक वातावरण आदि से भी कभीकभी बालक के आचार-विचार विलक्षण ही होते हैं। माता-पिता सरल, धर्मात्मा, न्याय-नीति से जीवन-व्यवहार चलाते हैं, लेकिन उनकी संतान क्रूरता, हिंसा, बेईमानी में आनन्द मानने वाली होती है। माता-पिता बिलकुल अपढ़ होते हैं, लेकिन बालक इतना कुशाग्र बुद्धि कि बड़े-बड़े विद्वानों में उसकी गणना की जाती है । किन्हीं - किन्हीं माता-पिताओं की रुचि जिस बात पर बिलकुल नहीं होती है, किन्तु बालक उसमें सिद्धहस्त बन जाता है यह सब कैसे होता है और इस प्रकार की विभिन्नता का कारण क्या है ? इसके लिये आस-पास की परिस्थिति ही कारण नहीं मानी जा सकती है । क्योंकि समान परिस्थिति और देखभाल बराबर होते रहने पर भी अनेक विद्यार्थियों में विचार और व्यवहार की भिन्नता देखी जाती है । यह भी देखने में आता है कि माता-पिता की योग्यता बहुत बढ़ी चढ़ी होती है और चाहते हैं कि वैसी ही योग्यता सन्तान में भी आये, लेकिन उनके लाख प्रयत्न करने पर भी पुत्र-पुत्री आदि संतान निरी गंवार रह जाती हैं।
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२. यह तो प्रत्यक्ष है कि एक साथ युगल रूप से जन्मे हुए दो बालक भी समान नहीं होते हैं। दोनों की समान रूप से बराबर देखभाल होने, शिक्षा-दीक्षा के संस्कार सिंचन करने पर भी एक साधारण रहता है और दूसरे की विद्वत्ता एवं प्रतिभा को संसार सम्मानित करता है। एक को देखकर खुशी होती है और दूसरे को देखना भी लोग पसंद नहीं करते हैं, घृणा करते हैं । एक दीर्घजीवी होता है और दूसरा प्रयत्न करने पर भी यम का अतिथि बनने से नहीं बचाया जाता ।
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