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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : चतुर्थ खण्ड
की बनाई है।
प्रथम सूची में शाषण में उपलब्ध व
अवतारवाद का संबंध मुख्य रूप से विष्णु से ही लिया जाता रहा, किन्तु विष्णु के प्रयोजन सहित जन्म का वृत्तान्त वैदिक साहित्य में विरल है। फिर भी जिन उपादानों से महाकाव्य एवं पौराणिक विष्णु तथा उनके अवतार का विकास हुआ है अधिकांश में इन्द्र तथा प्रजापति से अधिक सम्बन्धित रहा है । कालान्तर में विष्णु को सर्वश्रेष्ठ मानकर सब उन पर आरोपित हो गया । अवतारवाद के मुख्य प्रयोजन में रक्षा मुख्य था । असुरों से युद्ध के लिये बल पराक्रम की आवश्यकता थी। वह वैदिक विष्णु में थी। उन्हें इन्द्र का सखा भी बताया गया तथा विभिन्न वैदिक ऋचाओं में उनकी स्तुति की गई।' भारतीय मध्यकालीन साहित्य में अवतार की जो चर्चा मिलती है उसका प्रारम्भिक परिचय महाभारत एवं पुराणों में मिलता है। महाभारत के "नारायणीयोपाख्यान" में न्यून अन्तर के साथ ४, ६, १० के क्रम में अवतारों की तीन सूची प्राप्त हैं। श्री भाण्डारकर ने इस उपाख्यान के विश्लेषण में उपलब्ध वराह, नसिंह, वामन, परशुराम, रामदशरथी तथा कृष्ण इनके अवतारों को प्रथम सूची में शामिल किया है, फिर से, कूर्म, मत्स्य तथा कल्कि को मिला कर दूसरी सूची १० की बनाई है। विष्णु पुराण में दशावतार का कोई उल्लेख नहीं मिलता। किन्तु अग्नि, वराह आदि परवर्ती पुराणों में मत्स्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, बल्कि यह क्रम मिलता है। निर्गुण तथा निराकार ईश्वर के उपासक सन्त भक्तों के पदों में कहीं-कहीं दशावतार का प्रासंगिक जिक्र मिलता है। हालांकि इस वर्ग के सभी सन्त अवतारवाद के साथ ही दशावतार के आलोचक रहे हैं। कुछ सन्त ऐसे हुए हैं कि जिन्होंने सगुणोपासक सन्तों की भाँति दशावतार का विस्तृत वर्णन किया है। क्षेत्र की दृष्टि से महाराष्ट्र तथा बंगाल के सन्तों ने दशावतार की चर्चा की है। निर्गुण सन्त कबीर ने अपने “कबीर बीजक" में संग्रहीत एक पद में कहा है कि "जो अवतरित होकर लुप्त हो जाते हैं, वे ईश्वर के अवतार नहीं हैं, अपितु यह सब माया का कार्य है।" कबीर वचनावली में कहा गया है कि ये दशावतार निरंजन कहे जाने पर भी अपने नहीं हो सकते क्योंकि इन्होंने भी साधारण मनुष्यों की तरह अपनी-अपनी करनी का फल भोगा है। अन्य निर्गुण सन्तों ने भी दशावतार की आलोचना की है। सन्त मलूकदास ने तो दशावतार के मूल उद्गम के सम्बन्ध में ही सन्देह व्यक्त किया है । बड़े आश्चर्य से पूछते हैं ये दशावतार कहाँ से आए ? किसने इनका निर्माण किया ? सन्त रज्जव अवतार की १० तथा २४ संख्या देखकर ही भड़कते हैं । तथा ऐसे धनी का स्मरण करते हैं जो सब कर्ता सर-मौर है" बौद्ध तथा जैन साहित्य में चौबीस तीर्थकर तथा २४ बुद्धों का जिक्र मिलता है। इसी पर से भागवत धर्म में भी अवतार की संख्या २४ मानली गई। फिर भी जैनदर्शन में २४ तीर्थकर की वार्ता जितनी रूढ़ है उतनी बौद्ध या भागवत धर्म में नहीं मिलती। बौद्ध तथा वैष्णव मत में बुद्ध की विविध रूपों तथा विष्णु के अवतारों की संख्या सदैव एकसी नहीं रही है । २ दशावतार में प्रथम मत्स्यावतार (जल में रहने वाला), कूर्माबतार (जो पानी तथा भूमि पर चले, कछुए के पैर होते ही हैं)। इसके बाद पूर्ण पशु वराह का अवतार हुआ। उसके पश्चात् नृसिंहावतार (जो आधा पशु तथा आधा मानव), वामन तथा उसके बाद वाण से स्वयं तथा पर की रक्षा करने वाले राम (जिन्होंने रावण के विरुद्ध अन्याय का प्रतिकार करने के लिए वाण चलाये तथा मर्यादा पूर्वक राज्य चलाया), आठवाँ कृष्णावतार (जिन्होंने स्वयं राज्य नहीं किया । किन्तु पाण्डवों की सहायता की)। काका कालेलकर ने अपने उपरोक्त लेख में यह मत व्यक्त किया है कि इसके बाद हिन्दू धर्म का विकासक्रम रुक गया। लेखक के नम्र मत में हमारी भारतीय दार्शनिक सहिष्णुता तथा हमारे वैचारिक वैमव का यह परिणाम रहा कि तथागत बुद्ध को नवें अवतार के रूप में अपना लिया। जिन्होंने थोड़ी अहिंसा चलाई । काका साहब ने यह मत भी व्यक्त किया है कि इसके बाद पूर्ण अहिंसक समाज की रचना के लिहाज से भगवान महावीर होने चाहिए थे किन्तु हिन्दू धर्म ने कल्कि अवतार को १०वाँ स्थान दे दिया । तात्पर्य यह है कि अवतारवाद में जो विकास क्रम था वह टूट गया। फिर भी मानव की विकास कथा अवतारवाद के द्वारा रूपक तथा अलंकार के शब्दों में प्रस्तुत हुई, इसमें शंका नहीं है । साथ ही किसी समय खोजा सम्प्रदाय के प्रधान पीर सदर अलदीन ने दशावतार नाम की एक पुस्तक लिखी है जिसमें १०वें अवतार 'अली' को बताया है । नो अवतार तक को उपरोक्त रीति से मानकर १०वाँ अवतार 'अली' घोषित करके विचित्र समन्वय का प्रयास किया गया है । 'पीरजाद' सम्प्रदाय में विष्णु के दशावतार की परम्परा है उसमें दसवां 'निष्कलंक' को परम देव (भावी अवतार) मानते हैं । तात्पर्य यह हैं कि हिन्दूधर्म के अलावा सूफी खोजा आदि में भी दशावतार की मान्यता का प्रचलन था।"
इधर भागवत धर्म में जैन तीर्थंकर ऋषभदेव को ८वें अवतार के रूप में अपनाया गया तथा उनकी परम योगी आदि विशेषणों से प्रशंसा की गई है। यह कितना प्रशंसनीय समन्वयात्मक आदान-प्रदान रहा कि जैनधर्म ने राम तथा कृष्ण को अपने यहाँ त्रिषष्टिशलाका पुरुषों में स्थान देकर उन्हें बलभद्रवासुदेव घोषित किया । ६३ शलाका पुरुषों का जैनधर्म में अत्यन्त आदर के साथ नाम लिया जाता है। भागवत पुराण में अवतारों की संख्या २४ मान
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