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ईश्वरवाद तथा अवतारवाद
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किसी का राम काशी में, किसी का है मदीने में किसी का जन, जमी जर में किसी का खाने पीने में कोई कहता 'गया' में है, किसी का योरेशलम में है।
प्रेमानन्द राम अपना या तो हरजां है, या सीने में है। --मस्त सन्त प्रेमानन्द ने विभिन्न धार्मिक मान्यताओं में विहित पवित्र स्थानों को गिनाते हुए यह मत व्यक्त किया है कि मेरा राम (दशरथ पुत्र नहीं अपितु परम ब्रह्म) या तो सर्वव्यापी है या मेरे हृदय में है।
भारतीय दार्शनिक परम्परा में षट्दर्शन माने जाते हैं हालांकि उनकी गणना में विचारकों में मतभेद रहा है। किसी ने ऐसी दार्शनिक परम्परा को षट्दर्शन में मान्यता दी जो कि वेद प्रमाण मानकर चलती है। उन विचारकों ने वेद-प्रमाण न मानने वाले जैन, बौद्ध, चार्वाक दर्शन को षट्दर्शन के अन्तर्गत नहीं माना। बहरहाल न्यायदर्शन के सम्बन्ध में कहा जाता है कि न्यायदर्शन के भाष्यकार वात्स्यायन ने ईश्वर का उल्लेख किया है। यह भी कहा जाता है कि न्यायदर्शन का सम्बन्ध शैवमत के साथ है, जो जगत का नियामक ईश्वर माना जाता है। वैशेषिकदर्शन में ईश्वर को जगत का निमित्त कारण बताया जाता है। पूर्वमीमांसादर्शन का सम्बन्ध तो केवल वेद विहित यज्ञों के कर्मकाण्ड से है । इस कारण वैदिक देवताओं को प्रसन्न करने या उनको सहायक बनाने के लिये यज्ञ का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वेदान्तदर्शन के सम्बन्ध में पहले विस्तार से उल्लेख किया गया है। वहाँ पर तो निम्न महावाक्य पथ-प्रदशंन करते हैं जो भारतीय दार्शनिक क्षेत्र में मानव को प्रकाश स्तम्भ का कार्य देते हैं।
१. एकमेवाद्वितीयम् २. तत्वमसि-इस वाक्य में गुरु शिष्य को कहता है कि तू ही वह है ।
यह एक विशेष बात है कि सांख्यदर्शन (जिसे पहली विचारधारा के अनुसार भी षट्दर्शन में गणना की जाती रही है ) में ईश्वर के संबंध में निश्चित धारणा नहीं हैं। यह तो बिल्कुल स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन में सृष्टि के नियामक के रूप में किसी ईश्वर की कल्पना नहीं है । कार्य-कारण के आधार पर सृष्टि की उत्पत्ति, नियमन होता है। दो तत्व (१) पुरुष और (२) प्रकृति माने गये। सांख्यप्रवचन में तो "ईश्वरासिद्धः" कहा गया है यानी किसी प्रमाण से ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं है । यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन वेद-प्रमाण नहीं मानता; अपितु उसकी मान्यता जैनदर्शन के अधिक निकट है। योगदर्शन में भी मानसिक एकाग्रता के लिये ईश्वर के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, सृष्टि के कर्ता के रूप में नहीं। इसी आधार पर योगदर्शन को 'सेश्वरसांख्य' भी कहा जाता है।
__उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय दार्शनिक परम्परा में चार्वाकदर्शन को छोड़कर लगभग सब दर्शन ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करते हैं । यह बिल्कुल सत्य है कि ईश्वर के स्वरूप, आदि बातों में परस्पर भिन्नता इतनी विशाल है कि जिसके कारण कभी-कभी विचारक जैन, बौद्ध, सांख्यदर्शन को निरीश्वरवादी मान लिया जाता है । यदि गहराई से विचार करे तो शुद्ध रूप से केवल चार्वाक दर्शन ही निरीश्वरवादी दर्शन है शेष किसी न किसी रूप में ईश्वर के अस्तित्व को मानते हैं। यह एक तथ्य है कि अधिकतर धर्माचार्य एशिया में ही उत्पन्न हुए; कुछ के निकट ईश्वर निराकार, कुछ के निकट ईश्वर साकार था। गांधीवादी सुप्रसिद्ध विचारक काका कालेलकर ने अपने एक लेख 'दस अवतारों की कल्पना तथा विकासवाद' में यह मत प्रतिपादित किया है कि हिन्दूधर्म के दो विभाग स्पष्ट हैं-एक वेदान्ती हिन्दूधर्म तथा दूसरा पौराणिक हिन्दूधर्म। हालांकि मान्यताभेद के बाद भी एकदूसरे को दोनों सहन करते हैं। एक ब्रह्म के बाद विश्व की तीन शक्ति का उल्लेख किया जाता है-(१) ब्रह्मा, (२) विष्णु, (३) महेश । जहाँ तक लेखक की अल्प माहिती है ब्रह्मा उत्पत्ति का, विष्णु प्रतिपालक का, महेश नाश का प्रतीक है । यही तीन शक्तियां विश्व का संचालन करती हैं। जैनदर्शन में त्रिपदी का महत्व है । उत्पत्ति, ध्रौव्य, विनाश । मान्यता यह है कि तीर्थकर अपने प्रमुख शिष्य (जिन्हें गणधर कहा जाता है) को इसी त्रिपदी का ज्ञान प्रदान करते हैं तथा यह द्वादशांगी (१२ प्रमुख शास्त्र) का निर्माण करते हैं। केवल यही नहीं क्रिश्चयानिटी में भी त्रिनटी के सिद्धान्त की चर्चा प्राप्त है।
___ "अवतार" शब्द के संबंध में डा. कपिलदेव पाण्डे ने अपने शोध-प्रबन्ध ("मध्य कालीन साहित्य में अवतारवाद" की पीठिका ) में विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। इतनी विस्तृत चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है । साधारणतया भारतीय धार्मिक जगत में "अवतार" शब्द के साथ "उत्तार" शब्द भी व्यवहृत है। वैदिक तथा पौराणिक जगत में अवतार तथा श्रमण परम्परा ये उत्तार शब्द का प्रयोग होता है । "अवतार" शब्द सामान्य उत्पत्ति या जन्म के अर्थ में नहीं लिया जाता अतः विष्णु या अजन्मा ईश्वर के जन्म या उत्पत्ति को ही अवतार कहा जाता है। प्रारम्भिक
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