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तृतीय खण्ड : गुरुदेव की साहित्य धारा
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दोष भी धन की
वस्तु का उपयोग
जंग से खराब
परीक्षा-नन्हीं-नन्हीं बातों से ही हमारे हृदय की विराटता और संकुचितता की परीक्षा होती है।
आचरण-आचरण के बिना बौद्धिक ज्ञान निर्जीव शरीर की भांति है; म्यूजियम में मसाला भर कर सुरक्षित रखे हुए शरीर भले ही देखने में सुन्दर दिखाई दें किन्तु उनमें प्रेरणा देने की शक्ति नहीं है ।
बुद्धि की वृद्धि-केवल बुद्धि की वृद्धि से कभी-कभी मानव का हृदय शून्य हो जाता है। उसमें से दया, प्रेम आदि सात्त्विक गुण उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे प्रखर ताप से हरियाली ।
वाचाल-जिस वृक्ष में पत्त बहुत अधिक होते है उसमें फल बहुत ही कम आते हैं, जो अधिक वाचाल है वह कार्य कम करता है।
धन-चन्द्रमा में कलंक है ; किन्तु किरणों की तेजस्विता से कलंक छिप जाता है, वैसे ही धनवान के दोष भी धन की चमक-दमक से दिखाई नहीं देते ।
आलस्य-किसी भी वस्तु का उपयोग किया जाय वह उतनी खराब नहीं होती जितनी खराब जंग लगने से । मानव भी कार्य करने से नहीं, किन्तु आलस्य के जंग से खराब होता है।
मन-मन सफेद वस्त्र की तरह है, उसे जिस रंग में रंगना चाहो वह उसी रंग में रंगा जायेगा। यदि तुम्हारा चरित्र दर्पण के समान निर्मल है तो दूसरे भी उसमें अपना प्रतिबिम्ब देख सकते हैं।
प्रतिज्ञा-जिसने प्रतिज्ञा ग्रहण नहीं की है वह बिना पतवार के नौका के सदृश है, जो इधर से उधर टकराता है और अन्त में विनष्ट हो जाता है। प्रतिज्ञा-ग्रहण करना कमजोरी का नहीं बल का प्रतीक है।
सत्य-सत्य एक विराट वृक्ष के समान है, उसकी हम जितनी अधिक सेवा करेंगे उससे उतने ही मधुर फल प्राप्त होंगे।
आंख-आँख वह दर्पण है जिससे अतहृदय की निर्मलता और पवित्रता को देखा जा सकता है। यदि हृदय में वासना की आँधी आ रही है तो वह आँख में प्रकट हो जायगी।
परिश्रम-परिश्रम चतुर्मुख ब्रह्मा की तरह विश्व का निर्माण करने वाला है और चतुर्भुज विष्णु की तरह सभी का पालन करने वाला भी है। और त्रिनेत्रधारी शिवशंकर की तरह आलस्य रूपी कामदेव को नष्ट करने वाला है।
मानव-जीवन-मानव का जीवन मोजाइक फर्श की तरह है। उसे जितना अधिक घिसा जायगा उतना ही अधिक वह चमकेगा।
महानता-यदि कोई ऊँचे आसन पर बैठने से महान बन सकता हो तो मन्दिर को ध्वजा पर बैठने वाला कौआ और चील भी महान् बन जायेंगे। महानता सद्गुणों से आती है, ऊँचे बैठने से नहीं।
आपश्री की साहित्य रचना के दो प्रयोजन स्पष्ट परिज्ञात होते हैं-स्वान्तःसुखाय और सर्वजन हिताय । आपश्री के सम्पूर्ण साहित्य की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक है । दर्शन और आध्यात्मिक विचारों का सुन्दर संगम है । आपके साहित्य में सूक्तियाँ और उक्तियों की प्रचुरता है जो अत्यन्त रोचक और भावप्रवण है, जिसमें अर्थ गाम्भीर्य कूट-कूटकर भरा हुआ है । "धर्म का कल्पवृक्ष : जीवन के आंगन में" "दान : एक समीक्षात्मक अध्ययन" "श्रावक धर्म दर्शन" "ओंकारः एक अनुचिन्तन" "ज्योतिर्धर जैनाचार्य" "विमल विभूतियाँ" "चिन्तन : एक नई दिशा में" आदि ग्रन्थों में संग्रहीत आपके विचार इस बात के ज्वलन्त प्रमाण हैं। आपका साहित्य आशा, विश्वास, जागरण और प्रेरणा की अदम्य शक्ति का संचार करने वाला है । आपके साहित्य के अध्ययन से निराशा और कुण्ठा तिरोहित हो जाती है और जीवन-निर्माण की महान् शक्ति प्राप्त होती है। आपश्री ने भारतीय संस्कृति की विभिन्न भाव-धाराओं पर गहन चिन्तन कर उनमें से नवनीत निकाला है । आपका चिन्तन आकाश-कुसुम की तरह नहीं, मानवता प्राप्त करने का दिव्य साधन है । आपने गद्य और पद्य दोनों में विपुल साहित्य का निर्माण किया है, जिसमें कबीर और आनन्दघन का फक्कड़पन है। सूर और तुलसी की सरसता है और रवीन्द्र और अरविन्द की दार्शनिक गम्भीरता है।
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