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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
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श्रीमदाचार्यामरसिंहमहाकाव्य एक समीक्षात्मक अध्ययन
पं. रमाशंकर शास्त्री
यह बात तो सम्प्रति सर्व विदित है कि संस्कृत की साहित्य प्रवृत्ति, सर्वथा तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु अवरुद्धप्रायः तो है ही। जहाँ संस्कृत-भाषा के अध्ययन और अध्यापन का महत्त्व नहीं आंका जाता, वहाँ पर संस्कृत के काव्य की रचना, मेरे विचार से एक महत्त्व की बात है । संस्कृतज्ञों के लिए तो यह कार्य प्रोत्साहक समझना चाहिये।
__यद्यपि भारतवर्ष में आज भी संस्कृत-साहित्य के पूर्ण अधिकारी विद्वान विद्यमान हैं, तथापि किसी संस्कृतसाहित्य सम्मेलन के समय संस्कृत-समस्या-पूर्ति के अतिरिक्त किसी नूतन रचित काव्य की चर्चा प्राय नहीं होती। क्योंकि आज के संस्कृत भाषा साहित्य के विद्वान् की प्रवृत्ति काव्य-कला की ओर नहीं है। इसके अनेक कारणों में से एक कारण यह भी है और वह मेरी दृष्टि में तो प्रमुख ही समझ लीजिए, कि श्रोता ही नहीं है । श्रोता जब संस्कृत नहीं जानते तब वे सुनने क्यों आयेंगे? और कैसे काव्य के अध्ययन का आनन्द उठायेंगे ? कवि भी काव्य के पाठ पर आनन्दानुभूति की अभिश्र ति चाहते हैं, प्रोत्साहनात्मक अभिव्यक्ति की उत्सुकता रखते हैं। यह एक मानवीय मनोविज्ञान है। इतने पर भी संस्कृत काव्य की सृष्टि वास्तव में कवि के प्रति संस्कृत के उत्कट अनुराग की सूचक है। सम्भवतः इसी विचार पर भारवि ने कहा था कि 'उत्पत्स्यते मम तु कोऽपि समानधर्मा, कालोह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी।
कहने का अभिप्राय यह नहीं है कि संस्कृत-काव्य-रचना नहीं हो सकती अथवा नहीं होनी चाहिये, किन्तु इस उक्त कारण से भी संस्कृत-काव्य-रचना की प्रवृत्ति में अवरोध आता है । पर संस्कृत के कवियों के लिए यह एक अवसर आया है, जिसमें उनको संस्कृत के प्रसार-प्रचार में संस्कृत की कविता का उपयोग लेना चाहिये और नवीन प्रवृत्तियों के प्रयोग संस्कृत भाषा में प्रारम्भ कर देने चाहिये।
इस दृष्टि से यदि हम विचार करें तो उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी महाराज का काव्य एक दिशासूचक काव्य है । जिस युग में संस्कृत के काव्यों का प्रणयन महाकवियों के द्वारा हुआ होगा, उस समय अवश्य ही समस्यायें होंगी। किन्तु वे समस्याओं की चिन्ता न करते हुए, अनुपम काव्यों की रचना कर सके और संस्कृत-साहित्य की श्रीवृद्धि कर सके । अतः संस्कृत के कवियों को संस्कृत के प्रसार-प्रचार के लिए संस्कृत कविता का प्रारम्भ कर देना ही उचित प्रतीत होता है।
वह भी कैसा सौभाग्यवान् समय था जब संस्कृत के काव्यों की रचना होती थी। विद्वत्परिषदों में काव्यों का पाठ होता था और वे कवियों की प्रशंसा करते थे । साथ ही वे काव्यों के आवश्यक गुणों की समीक्षा करते थे और दोषों के निवारण के लिये उचित मार्गदर्शन प्रदान करते थे । लगता है कि संस्कृत-साहित्य के लक्षण-ग्रन्थों की उत्पत्ति के मूल में विद्वत्सभाओं की मान्यताओं की ही प्रतिष्ठा है।
किन्तु आज पण्डितराज जगन्नाथ के समान टकशाली और परिमार्जित संस्कृत के प्रयोक्ता कहाँ हैं ? हैं भी तो परिज्ञात नहीं हैं । अतः वे भी नहीं के तुल्य ही हैं। इसलिए निर्भीक होकर सरल और सर संस्कृत के काव्यों की रचना कीजिए, जैसा कि मुनिश्री जी ने उपक्रम किया है।
मुनिश्रीजी गुजराती, महाराष्ट्री, डिंगलभाषा अर्थात् राजस्थानी भाषा के मंजे हुए ज्ञाता, प्रयोक्ता और कवि हैं । हिन्दी भाषा के तो आपश्री साहित्यकार ही हैं । मुनिश्री जी के अनेक ग्रन्थ प्रकाश के परिवेश में वेष्टित हैं, किन्तु आपप्राकृत (अर्द्धमागधी) और अमरभारती संस्कृत के विशिष्ट वेत्ता और कवि भी हैं।
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