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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
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विचार चर्चा हेतु के० जी० एफ० जैन स्थानक में उपस्थित हुए । वार्तालाप के प्रसंग में श्रद्धय सद्गुरुवर्य ने धर्म और सम्प्रदाय का विश्लेषण करते हुए कहा-धर्म जीवन का संगीत है। आध्यात्मिक उत्क्रांति का मूलमंत्र है । धर्म है अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह और अनासक्ति । ये सद्गुण प्रत्येक मानव के जीवन को विकसित करते हैं। धर्म को जहाँ सम्प्रदाय का रूप दे दिया जाता है वहाँ संघर्ष, कलह आदि समुत्पन्न होते हैं । सम्प्रदाय में धर्म निश्चित रूप से रहा हुआ हो यह नहीं कहा जा सकता । सम्प्रदाय जन्म लेती है और मरती है, किन्तु धर्म सदा अखण्ड रहता है। सम्प्रदाय पाल के समान है और धर्म पानी के समान है। तालाब का पाल हो किन्तु पानी न हो तो वह तालाब किस काम का?
हमारे संविधान में भारत को "धर्म-निरपेक्ष” राज्य कहा गया है। मेरी दृष्टि से यह ठीक नहीं है। इसके बदले “सम्प्रदाय-निरपेक्ष' राज्य कहा जाता तो अधिक उचित होता ।
श्री रामचन्द्रन जी ने स्वयं अनुभव किया कि उपाध्याय श्री का कथन यथार्थ है।
स्थानीय जैन युवक मण्डल ने श्री रामचन्द्रन को “नमस्कार महामंत्र" का कलात्मक चित्र समर्पित किया । श्रद्धेय गुरुदेव श्री ने नमस्कार महामंत्र का महत्त्व बताते हुए कहा- यह जैनधर्म का महामंत्र है । इसमें व्यक्ति की पूजा नहीं, किन्तु गुणों की उपासना की गयी है । जैनधर्म व्यक्ति-पूजा को नहीं गुण-पूजा को महत्त्व देता है । चाहे ब्रह्म हो, विष्णु हो या शिव हो या जिन हो वह सभी को जिनका राग-द्वेष नष्ट हो गया हो उनको नमस्कार करता है।
जैनधर्म की इस उदार-वृत्ति को देखकर केन्द्रीयमंत्री का हृदय गद्गद हो गया। गुरुदेव श्री ने कहा-मैं आपकी जन्मस्थली तमिलनाडु में आ रहा हूँ। यह जानकर श्री रामचन्द्रन को हार्दिक आल्हाद हुआ और उन्होंने गुरुदेव श्री से साग्रह प्रार्थना की कि आप उस पुण्यभूमि में अवश्य पधारें, समय निकालकर मैं फिर कभी आपके दर्शन का लाभ लूंगा।
अन्त में श्री रामचन्द्रन जी को "ऋषभदेव : एक परिशीलन" तथा श्री राजेन्द्र मुनि द्वारा लिखित ग्रन्थ समर्पित किये गये।
गुरुदेव और श्री गोलवलकर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ संचालक स्व० श्री माधवराव सदाशिव राव गोलवलकर (गुरु जी) का गुरुदेव श्री सन् १९७२ में जब सिंहपोल-जोधपुर में चातुर्मास में विराज रहे थे, तब उनके दर्शनार्थ आगमन हुआ। भारतीय धर्म, दर्शन, और संस्कृति के सम्बन्ध में गम्भीर विचार चर्चा करते हुए गुरुदेव श्री ने कहा-ये तीनों मानव जीवन के विकास के लिए आवश्यक हैं। इत तीनों को विभक्त नहीं किया जा सकता। तीनों का समन्वित रूप ही मानव जीवन के लिए वरदानस्वरूप है। जब संस्कृति आचारोन्मुख होती है तब वह धर्म है और जब वह विचारोन्मुख होती है तब वह दर्शन है । संस्कृति का बाह्य रूप क्रियाकांड है, वह धर्म है और संस्कृति का आन्तरिक रूप चिन्तन है वह दर्शन है । संस्कृति का अर्थ संस्कार है। संस्कार चेतन का हो सकता है छड़ का नहीं।
संस्कृति अपने आप में एक अखण्ड और अविभाज्य तत्व है। उसका खण्ड या विभाजन नहीं किया जा सकता । भेद या खण्ड चित्त के संकीर्ण के प्रतीक हैं। संस्कृति के पूर्व जब किसी प्रकार का कोई विशेषण लगा दिया जाता है तो वह विभाजित हो जाती है । अखण्ड होकर के भी वह विशेषणों के कारण विभक्त हो जाती है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति भी श्रमण संस्कृति और ब्राह्मण संस्कृति इन दो विभागों में विभक्त हो गयी है । श्रमण और ब्राह्मण ये दोनों भारतीय धर्म-परम्पराओं में गुरु के गौरवपूर्ण पद को अलंकृत करते रहे हैं । एक ही राष्ट्र में रहते हुए एक ही राष्ट्र का अन्न-जल का उपभोग करते हुए दोनों की चिन्तन पद्धति पृथक-पृथक् रही है। श्रमणों ने त्याग, वैराग्य और विरक्ति को प्रधानता दी तो ब्राह्मणों ने भोग-सुख और सुविधा को। श्रमणों ने भौतिक सुखों से विरक्त होकर आध्यात्मिक कल्याण को प्राप्त करने का लक्ष्य बनाया तो ब्राह्मणों ने संसार में रहकर अधिक से अधिक सुख का उपभोग करने का । ब्राह्मण संस्कृति का अंतिम लक्ष्य स्वर्ग है जहाँ सुखों का सागर ठाठे मार रहा है। जब कि श्रमण संस्कृति का लक्ष्य मोक्ष है जहाँ भौतिक सुख का पूर्ण अभाव है । वस्तुतः ब्राह्मण संस्कृति समाज और राष्ट्रोन्नति को प्रधानता देती है, वहाँ श्रमण संस्कृति व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास, चेतना, अन्तर शोधन एवं चेतना के ऊर्ध्वमुखी विकास को महत्व देती है।
ब्राह्मण संस्कृति को विकसित करने में मीमांसादर्शन, वेदान्तदर्शन, वैशेषिकदर्शन और न्यायदर्शन का अपूर्व योग दान रहा है तो श्रमण संस्कृति को विकसित करने में जैनदर्शन, बौद्धदर्शन, सांख्यदर्शन, योगदर्शन और आजीवकदर्शन का हाथ रहा है । ब्राह्मण संस्कृति का मूल लक्ष्य कर्मयोग है तो श्रमण संस्कृति का ज्ञानयोग और सन्यास योग है। श्रमण संस्कृति में श्रमण-जीवन को मुख्य माना है, गृहस्थ जीवन की अपेक्षा श्रमण जीवन की श्रेष्ठता और
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