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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन प्रन्थ
ज्येष्ठता का प्रतिपादन किया। कपिल ने और पतंजलि ने क्रमशः सांख्य सूत्र और योगसूत्र में संन्यास को जीवन का मुख्य धर्म स्वीकार किया है। यद्यपि उच्चतम साधकों के लिए श्रमण शब्द का व्यवहार न किया गया हो तथापि यह सत्य है कि संन्यासी, परिव्राजक और योगी शब्द-का भी वही अर्थ है जो श्रमण शब्द का है। सांख्यदर्शन का संन्यासी, योगदर्शन का योगी और श्रमण संस्कृति का श्रमण तीनों का मूल उद्देश्य एक ही है अध्यात्म-जीवन का विकास कर अनन्त आनन्द को प्राप्त करना । इस दृष्टि से सांख्य दर्शन और योगदर्शन भी श्रमण दर्शन से अभिन्न हैं। आजीवक पन्थ भी श्रमण परम्परा का ही अंग था, भले ही उसकी परम्पराएँ आज लुप्त हो गयी हों। श्रमण संस्कृति की सीमा अत्यन्त विस्तृत और व्यापक रही है।
गोलवलकर जी ने कहा-जैन धर्मावलंबी हिन्दू समाज के ही अंग हैं। फिर वे अपने आप को जैन क्यों लिखते हैं ?
गुरुदेव श्री ने समाधान करते हुए कहा-भारत में रहने वाले सभी हिन्दू हैं इस परिभाषा की दृष्टि से जैन भी हिन्दू हैं और जिसका हिंसा से दिल दुःखता है वह हिन्दू है इस परिभाषा से भी जैन हिन्दू हैं। किन्तु जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन त्रिदेवों को मानता हो, चारों वेदों को प्रमाणभूत मानता हो, ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानता हो वही हिन्दू है, इस परिभाषा की दृष्टि से जैन हिन्दू नहीं हैं । क्योंकि वह ईश्वर को सृष्टिकर्ता नहीं मानता और न वेद आदि को ही अपने आधारभूत धर्म ग्रन्थ ही मानता है। और न त्रिदेवों में उसका विश्वास है । इसीलिए हिन्दू धर्म अलग है, जैन धर्म अलग है। यह सत्य है कि जैन संस्कृति हिन्दू संस्कृति से पृथक् होते हुए भी वह भारतीय संस्कृति का ही एक अंग है, भारतीय संस्कृति से वह पृथक् नहीं है।
गुरुजी ने गुरुदेव श्री के द्वारा किये गये विश्लेषण को सुनकर प्रसन्न मुद्रा में कहा-आप जैसे समन्वयवादी और सुलझे हुए विचारक सन्तों की अत्यधिक आवश्यकता है । गुरुदेव और जगद्गुरु शंकराचार्य
श्रद्धय सद्गुरुवर्य और कांची कामकाटि पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य की भेंट का मधुर प्रसंग बड़ा दिलचस्प है । सन् १९३६ में गुरुदेव का चातुर्मास नासिक में था। सन्ध्या के समय आपश्री गोदावरी नदी की ओर बहिभूमि के लिए जा रहे थे, सामने से कार में जगद्गुरु आ रहे थे। उन्होंने आपको देखते ही कार रोक दी और संस्कृत भाषा में आपसे पूछा-आप कौन हैं ?
गुरुदेव श्री ने कहा-मैं वर्ण की दृष्टि से ब्राह्मण हूँ और धर्म की दृष्टि से जैन श्रमण हूँ।
जगद्गुरु इस उत्तर को सुनकर आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने कहा-ब्राह्मण और जैनों में तो आदिकाल से ही वैर रहा है, सांप और नकूल की तरह । फिर आपने ब्राह्मण कूल में जन्म लेकर श्रमण धर्म कैसे स्वीकार किया?
आपश्री ने कहा-जैन और ब्राह्मणों में परस्पर कटुतापूर्ण व्यवहार भी रहा है, यह सत्य है। और यह भी सत्य है कि हजारों ब्राह्मण जैनधर्म में प्रवजित हुए। भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य जो गणधर कहलाते हैं वे ग्यारह ही वर्ण से ब्राह्मण थे और उनके चार हजार चार सौ शिष्य भी ब्राह्मण थे। उन सभी ने भगवान महावीर का शिष्यत्व स्वीकार किया था। भगवान महावीर के शिष्य परिवार में ब्राह्मणों की संख्या काफी थी और उन सभी ने जैनधर्म के गौरव को बढाने में अपूर्व योगदान किया । भगवान महावीर के पश्चात् भी सैकड़ों ब्राह्मण मूर्धन्य मनीषियों ने जैनधर्म में दीक्षा ग्रहण की और विराट साहित्य का सृजन कर जैन धर्म की विजय-वैजयन्ती फहरायी है। आचार्य हरिभद्र, सिद्धसेन दिवाकर, आदि शताधिक विद्वान् हुए हैं जो वर्ण से ब्राह्मण थे।
जैनधर्म को आपने क्यों स्वीकार किया इस प्रश्न के उत्तर में आपश्री ने कहा-जैन धर्म में त्याग, संयम और वैराग्य की प्रधानता है। जनश्रमण अपने पास एक पैसा भी नहीं रख सकता है, पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है, भारत के विविध अंचलों में वह पैदल व नंगे पाँव परिभ्रमण करता है। वह अपना सामान स्वयं उठाता है । मधुकरी कर अपने जीवन का निर्वाह करता है और अपने सिर तथा दाढी के बालों को भी बह हाथों से नोंचकर निकालता है जिसे जैन परिभाषा में लुचन कहते हैं । जैन श्रमणों की इस त्याग निष्ठा ने ही मुझे जैन धर्म में प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए उत्प्रेरित किया।
उसके पश्चात् जैन दर्शन की विशेषताओं पर और भारतीय दर्शन में जैन दर्शन का क्या स्थान है इस संबंध में आपने विस्तार के साथ विवेचन किया । आपश्री के विवेचन को सुनकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और उन्होंने कहाआज प्रथम बार ही मुझे जैन मुनि से मिलने का अवसर मिला है । जैन दर्शन के सम्बन्ध में मैंने बहुत कुछ पढ़ रखा है,
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