________________
१६६
श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
आचार्य अकलंक ने ध्यान की परिभाषा करते हुए लिखा है-जैसे बिना हवा वाले प्रदेश में प्रज्वलित प्रदीपशिखा प्रकम्पित नहीं होती, वैसे ही निराकुल प्रदेश में अपने विशिष्ट वीर्य से निरुद्ध अन्तःकरण की वृत्ति एक आलम्बन पर अवस्थित हो जाती है। उनके अभिमतानुसार व्यग्र चेतना ज्ञान है और वही स्थिर होने पर ध्यान है।
आचार्य रामसेन ने कहा-एक आलम्बन पर अन्तःकरण की वृत्ति का निरोध ध्यान है। इसी तरह चिन्तन रहित स्व-संवेदन ही ध्यान है।
जैनाचार्यों ने ध्यान को अभावात्मक नहीं माना है। उसके लिए किसी न किसी एक पर्याय का आलम्बन आवश्यक है । स्व-संवेदन ध्यान, निरालम्बन ध्यान है। उसमें किसी श्रुत के पर्याय का आलम्बन नहीं होता इस ध्यान में ध्याता और ध्येय भिन्न नहीं होते । इसमें शुद्ध चेतना का उपयोग होता है, अन्य किसी ध्येय का ध्यान नहीं होता। दूसरा ध्यान सालम्बन ध्यान है। प्रारम्भ में साधक को सालम्बन ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। उसके द्वारा एकाग्रता पुष्ट होती है। राग-द्वेष के भाव मन्द होते हैं। उसके पश्चात् निरालम्बन ध्यान अधिक उपयुक्त है।
ध्यान चित्त की निर्विकल्प दशा है। वहाँ पर किसी भी विषय में मन का लगाव नहीं रहता । एतदर्थ ही आचार्यों ने कहा - "ध्यानं निविषयं मनः ।" निविषय मन ही ध्यान है। प्रस्तुत ध्यानावस्था अन्तर की गहन जागृति की झंकार जो प्रतिपल-प्रतिक्षण ध्याता को सुनायी देती है । ध्यान से चित्त में जो अनन्त-अनन्त ऊर्जाएं प्रसुप्त हैं वे जागृत होकर बहिर्मुखी प्रवाह को अवरुद्ध कर देती है । अतः जैन साधना-पद्धति में ज्ञान और ध्यान पर अत्यधिक बल दिया गया है।
ध्यान-शब्दों का विषय नहीं है । वह शब्दातीत अनुभूति है। इस अरूप अनुभूति को साधकों ने विभिन्न प्रतीकों के द्वारा व्यक्त किया है। जैसे, ध्यान एक अलौकिक मस्ती का नाम है, जिसे प्राप्त कर लेने के पश्चात् पर का बोध नहीं रहता । दूसरे शब्दों में स्वयं में खो जाने का नाम ध्यान है।
ध्यान-साधना के लिए आहार पर नियन्त्रण, शरीर पर नियन्त्रण, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, श्वासोच्छ्वास पर नियन्त्रण, भाषा पर नियन्त्रण और मन पर नियन्त्रण आवश्यक है । सालम्बन ध्यान के पिण्डस्थ अर्थात् शरीर के किसी एक अवयव पर एकाग्र होना उसकी पाँच धारणाएँ हैं-(१) पाथिवी, (२) आग्नेयी, (३) वायवी, (४) वारुणी और (५) तत्त्वरूपवती । धारणा का अर्थ बाँधना है । ध्येय में चित्त को स्थिर करना धारणा है। इन धारणाओं के सम्बन्ध में गुरुदेव श्री ने विस्तार से विवेचन किया।
सालम्बन ध्यान का दूसरा प्रकार पदस्थध्यान है-किन्हीं पवित्र पदों का आलम्बन लेकर उनके आधार पर चित्त को स्थिर करना पदस्थ ध्यान है । नवकार महामन्त्र, गायत्री मन्त्र, भगवद् नाम, आदि का जप इसी ध्यान के अन्तर्गत आता है।
तीसरे ध्यान का प्रकार रूपस्थ ध्यान है। यह है किसी पदार्थ विशेष के रूप और आकार पर ध्यान करना।
चतुर्थ प्रकार का ध्यान रूपातीत है। इस ध्यान में निराकार, निरंजन, सिद्ध परमात्मा का ध्यान करते हुए आत्मा स्वयं को मल-मुक्त, सिद्ध स्वरूप में ही अनुभव करता है।
इस प्रकार ध्यान के सम्बन्ध में गहराई से उनसे विचार चर्चाएँ हुई जिसे श्रवणकर वे अत्यन्त आल्हादित हुए। श्रद्धेय गुरुदेव और बाबू जगजीवनराम
दिनांक ६-२-१९७८ को केन्द्रीय रक्षामंत्री श्री जगजीवनराम जी कर्नाटक चुनाव प्रचार हेतु के० जी० एफ० (राबर्टसनपेट) में उपस्थित हुए। वे श्रद्धय सद्गुरुवर्य का आशीर्वचन प्राप्त करने हेतु जैन स्थानक में दर्शनार्थ उपस्थित हुए । अभिवादन के पश्चात् श्रद्धेय सद्गुरुवर्य ने बताया, भगवान ऋषभदेव विश्व संस्कृति के आद्य पुरुष हैं, जैन, बौद्ध
और वैदिक परम्परा में ही नहीं किन्तु विश्वसंस्कृति में उनका अप्रतिम स्थान है, वे संस्कृतियों के संगम स्थल हैं, उनके सम्बन्ध में विशद जानकारी देने हेतु "ऋषभदेव : एक परिशीलन" ग्रंथ उन्हें प्रदान करते हुए कहा कि ये राजनीति के आद्यपुरुष हैं। इनसे प्रेरणा प्राप्त कर जनता-जनार्दन के कल्याण हेतु धर्म के पथ पर शासन अग्रसर हो-यही मेरी मंगल मनीषा है।
श्री जगजीवनराम को श्री राजेन्द्र मुनि रचित ग्रंथ भी भेंट में दिये गये । श्रद्धय गुरुदेव और श्री पी० रामचन्द्रन
दिनांक १६-२-१९६८ को केन्द्रीय विद्य त् एवं ऊर्जा मंत्री श्री पी. रामचन्द्रन गुरुदेव श्री के दर्शनार्थ एवं
साला
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org