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द्वितीय खण्ड : जीवनदर्शन
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हेतुवाद पर आधारित है, तो धर्म का मुख्य आधार श्रद्धा है। श्रद्धा जिस बात को सर्वथा सत्य मानती है, तर्क उस बात को अस्वीकार करता है। जैन दर्शन में जितना महत्त्व विश्वास को मिला है उतना ही तर्क को भी मिला है। विश्वास की दृष्टि से देखने पर जैन-परम्परा धर्म है, और तर्क की अपेक्षा देखने पर दर्शन है। इस तरह जनदर्शन के दो विभाग हैं-व्यवहारपक्ष और विचारपक्ष । व्यवहार पक्ष का आधार अहिंसा है और विचार पक्ष का आधार अनेकान्त है। अहिंसा के आधार पर ही सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि व्रतों का विकास हुआ है । और अनेकान्तवाद के आधार पर नयवाद, स्याद्वाद और सप्तभंगी का विकास हुआ है। जैन-परम्परा का अनेकान्तवाद विभिन्न दर्शनों में व विभिन्न नामों से मिलता है। बुद्ध ने उसे 'विभज्यवाद' को संज्ञा प्रदान की है। बादरायण के ब्रह्मसूत्र में अथवा वेदान्त में इसे "समन्वय" कहा है । मीमांसा, सांख्य, वैशेषिक और न्यायदर्शन में भी भावना रूप से उसकी उपलब्धि होती है। किन्तु अनेकान्तवाद का जितना विकास जैन-परम्परा में हुआ है उतना विकास अन्य दूसरी परम्परा में नहीं हुआ।
जैन दर्शन में अहिंसा और अनेकान्तवाद के समान ही कर्मवाद पर भी विस्तार से चिन्तन किया गया है । कर्म, कर्म का फल और करने वाला इन तीनों का घनिष्ठ सम्बन्ध है। जनदृष्टि से जो कर्म का कर्ता है वही कर्म फल का भोक्ता भी है। जो जीव जिस प्रकार कर्म करता है उसके अनुसार शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के फल वह प्राप्त करता है। जिस प्रकार कर्म का निरूपण किया गया है उसी प्रकार कर्म और कर्म बन्धन से मुक्त होने को मोक्ष कहा गया है। जैन दर्शन में मोक्ष, मुक्ति और निर्वाण इन शब्दों का प्रयोग हुआ है। मुक्ति आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था है। मोक्ष अवस्था में आत्मा अपने स्वरूप में स्थिर रहता है, उसमें अन्य किसी प्रकार का विजातीय तत्त्व नहीं होता।
इस प्रकार श्रद्धय गुरुदेव श्री के गंभीर विवेचन को सुनकर पागे जी बहुत ही आकर्षित हुए और उन्होंने कहा कि जैनदर्शन वस्तुत: बहुत ही अनूठा दर्शन है । विश्व का अन्य दर्शन इसकी समकक्षता नहीं कर सकता।
गुरुदेव और श्रममंत्री सी. एन. पाटील दिनांक ७-१०-१९७६ को रायचूर में श्री कर्नाटक के श्रममंत्री सी. एन. पाटील उपस्थित हुए। और औपचारिक वार्तालाप करते हुए गुरुदेव श्री ने कहा कि कर्नाटक जैन संस्कृति का अतीत काल से ही प्रमुख केन्द्र रहा है। इतिहास की दृष्टि से श्रुतकेवली, भद्रबाहु स्वामी उत्तर भारत से इधर आये थे, ऐसा माना जाता है । जैन श्रमण भाषा की दृष्टि से बहुत ही उदार रहे। उन्होंने जिस तरह से अन्य भाषाओं में साहित्य का सृजन किया उसी तरह से कन्नड़ भाषा में भी साहित्य का निर्माण कर उसे समृद्ध बनाया । यहाँ तक की कन्नड़ साहित्य में से जैन साहित्य को निकाल दिया जाय तो प्राचीन कन्नड़ साहित्य प्राण रहित हो जायेगा। नृपतुंग, आदि पंप, पोन्न, रन्न, चामुण्डराय, नागचंद्र, कुमुदेंदु, रत्नाकरवर्णी आदि शताधिक जैन लेखक हुए हैं जिन्होंने साहित्य की प्रत्येक विधा में जमकर लिखा है। अभी बहुत-सा साहित्य अप्रकाशित पड़ा है । शासन का कर्तव्य है कि ऐसे साहित्य को प्रकाश में लाकर जैन धर्म और संस्कृति के सुनहरे इतिहास को जन-जन के समक्ष प्रस्तुत किया जाय ।
श्री सी० एन० पाटील ने कहा-आपश्री ने मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया, तदर्थ मैं आभारी है और ऐसा प्रयास करूंगा जिससे जैन कन्नड़ साहित्य का अधिक से अधिक प्रचार और प्रसार हो।
गुरुदेव और डा. श्रीमाली जी - भारत के भूतपूर्व केन्द्रीय शिक्षामन्त्री कालूराम श्रीमाली मैसूर में सद्गुरुवर्य के साथ विचार-चर्चा करने के लिए दो-तीन बार उपस्थित हुए । गुरुदेव श्री तथा उनके शिष्यों द्वारा विरचित साहित्य को देखकर वे अत्यन्त प्रमुदित हुए । उन्होंने कहा- मुझे परम प्रसन्नता है कि शोध प्रधान तुलनात्मक दृष्टि से जो साहित्य निर्माण हो रहा है उसकी आज अत्यधिक आवश्यकता है। "जैन कथाएँ" देखकर उन्होंने आश्चर्य प्रकट किया कि जैन साहित्य में कथा साहित्य का इतना भण्डार है। इसे हिन्दी साहित्य में लाने का आपने जो प्रयास किया है, वह प्रशंसनीय है। हमारे प्राचीन आचार्यों ने कथाओं के माध्यम से जीवन के अद्भुत तत्त्व जिस सरल और सुगमता से प्रस्तुत किये हैं उसे जन-मानस सहज रूप से ग्रहण कर लेता है।
ध्यान और योग तथा जप-साधना की चर्चा चलने पर गुरुदेव ने कहा-ध्यानशतक में आचार्य जिनभद्र ने स्थिर चेतना को ध्यान कहा है और चल-चेतना को चित्त कहा है। जं थिरमावसाणं तं झाणं जं चलं तयं चित्तं
-ध्यानशतक २।
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