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श्री पुष्करमुनि अभिनन्दन ग्रन्थ
दण्ड का पात्र है । आज व्यक्ति, समाज और राष्ट्र में जो अन्तर्द्वन्द्व चल रहा है उसके मूल में संग्रह वृत्ति है । संग्रह वृत्ति अनर्थों की विषबेल है, जो निरन्तर बढ़ती रहती है। और उसके दिखायी देने में बहुत ही सुन्दर और रमणीय फल भी लगते हैं, किन्तु उनका परिणाम मारणांतिक है । रशिया के महान् क्रांतिकारी लेनिन ने संग्रहवृत्ति को मानव समाज की पीठ का जहरीला फोड़ा कहा है। उसका आपरेशन होने पर ही काला बाजार और अप्रामाणिकता का खून और विस्तृत होने वाली शोषण वृत्ति की दुष्ट हो सकती है आज पनिक और गरीब के बीच आर्थिक वैषम्य के कारण एक गहरी खाई परिलक्षित हो रही है । वर्तमान में फैली हुई विषमता का मार्मिक चित्रण करते हुए कविवर दिनकर ने कहा है
श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूसे बालक अकुलाते हैं । माँ की दी से चिपक टिटर, जाड़े की रात बिताते हैं ॥
युवती की लज्जा वसन बेच जब ब्याज चुकाये जाते हैं । मालिक तब तेल फुलेलों पर, पानी-सा द्रव्य बहाते हैं।
अतः आज आवश्यकता है 'सादा जीवन और ऊँचे विचार' की । सम्राट चन्द्रगुप्त का महामन्त्री चाणक्य का जीवन कितना सीधा-सादा और अल्पपरिग्रही था। जब वे आश्रम में थे तब भी उनके पास कुछ नहीं था और जब महामन्त्री पद पर आसीन हुए तब भी वही सादगी थी। वृक्ष के नीचे बैठकर ही भारत के शासन-सूत्र का संचालन करते
ये वियतनाम के राष्ट्रपति हो-वि-मिन जब राष्ट्रपति चुने गये तब उन्होंने कहा- मुझे राष्ट्रपति इसीलिए चुना गया
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है कि मेरे पास ऐसी कोई चीज नहीं है, जिसे मैं अपनी कह सकूँ । न मेरा अपना मकान है, न परिवार है, न भविष्य की चिन्ता है । राष्ट्रपति हो-चि-मिन के रहने का मकान भी कच्चा और बाँस का बना हुआ था । और अन्य आवश्यक साधन भी अत्यन्त सीमित थे। आज हमारे देश के अधिकृत अधिकारी व्यक्तियों को चाहिए कि उनसे प्रेरणा प्राप्त कर आवश्यकताएँ कम कर एक आदर्श उपस्थित करें ।
गुरुदेव और बी० एस० पागे
परम श्रद्धेय सद्गुरुवर्य सन् १९७५ में पूना वर्षावास में विराज रहे थे। उस समय 'जैनदर्शन स्वरूप और विश्लेषण' ग्रन्थ का विमोचन करने हेतु महाराष्ट्र विधान सभा के अध्यक्ष वी. एस. पागे उपस्थित हुए। श्रद्धेय गुरुदेव ने भारतीय दर्शन पर चिन्तन करते हुए कहा - भारतवर्ष दर्शनों की जन्मस्थली है । चार्वाक दर्शन को छोड़कर भारत के सभी दर्शनों का मुख्य ध्येय आत्मा और उसके स्वरूप का प्रतिपादन है। चेतन और परमचेतन के स्वरूप को जितनी तल्लीनता के साथ भारतीय दर्शन ने समझने का प्रयास किया है उतना विश्व के अन्य किसी दर्शन ने नहीं । यह सत्य है कि यूनान के दार्शनिकों ने भी आत्मा के स्वरूप का प्रतिपादन किया है, किन्तु उनकी प्रतिपादन शैली अत्यधिक सुन्दर होने पर भी उनमें चेतन और परम चेतन के स्वरूप का विश्लेषण जितना गम्भीर और मौलिक होना चाहिए था उतना नहीं हो पाया। यूरोप का दर्शन आत्मा का दर्शन न होकर प्रकृति का दर्शन है। भारतीय दर्शन में प्रकृति के स्वरूप पर भी चिन्तन किया गया है किन्तु वह चिन्तन चैतन्य के स्वरूप के प्रतिपादन हेतु है । भारतीय दर्शन का अधिक आकर्षण आत्मा की ओर होने पर भी उसने जीवन और जगत् की उपेक्षा नहीं की । भारतीय दर्शन, जीवन और अनुभव की एक सुन्दर समीक्षा है। विचार और तर्क के आधार पर दर्शन, सत्ता और परम सत्ता के स्वरूप को समझने का प्रयास करता है। और उसके पश्चात् उसकी यथार्थता पर निष्ठा रखने की प्रेरणा प्रदान करता है । इस तरह भारतीय दर्शन में तर्क और श्रद्धा का मधुर समन्वय है। पश्चिमीय दर्शन स्वतन्त्र चिन्तन पर आधृत है और वह आप्त प्रमाण की पूर्ण उपेक्षा करता है, किन्तु भारतीय दर्शन में आध्यात्मिक चिन्तन की प्रेरणा है। भारतीय दर्शन में आध्यात्मिक अन्वेषणा है । किन्तु बौद्धिक विलास नहीं । दर्शन का अर्थ है सत्य का साक्षात्कार करना । फिर भले ही वह सत्ता चेतन की हो या अचेतन की हो । भारतीय दर्शनों में जैनदर्शन का अपना एक विशिष्ट स्थान है । जैन दर्शन अन्य दर्शनों की भाँति तर्कप्रधान है, तथापि उसमें श्रद्धा और मेधा दोनों का समानरूप से विकास हुआ है । जैन-परम्परा जहाँ एक ओर धर्म है, दूसरी ओर दर्शन है। हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि दर्शन तर्क और
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