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सम गम्भीर आप हैं, चन्दा जैसा निर्मल ज्ञान समुज्ज्वलता से, ज्योतित होता चञ्चल मन की सुस्थिरता से,
ध्यान भाव में रत रहते । ज्ञान- राशि के रत्न महोज्ज्वल,
आत्म-भाव में नित बहते । आत्मयोग के शुक्ल यशोधर,
सहनशक्ति के हो दाता । करुणासागर निज प्रभु के,
चरणों में झुकता नित माथा ॥ उपाध्याय पदवी पर शोभित, दीप्तिमन्त हो रहे ध्यान आपका करे जो निशिदिन,
सागर
सत्य
साध्वी श्री राजेमती जी
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मन ।
अन्तस्तल ।
आप ।
प्रथम खण्ड : भद्धार्चन ११५
सुवासित पुष्प
साध्वी भारती जी, जैनसिद्धान्त - विशारद तत्वबुद्धि को देख आपकी, मन हर्षित हो जाता है । प्रतिभाधारी ज्ञानी गुरु के, यशोगान यह गाता वाणी भाषा ओजस्वी है, तेजस्वी मुख- दर्पण छल-प्रपंच से दूर बहुत यह,
है ।
सरल आपका जीवन है । जन्म-ग्रहण करते पुरुषोत्तम,
जग का दुःख मिटाने को । मौख्यं निशाचर दूर भगाते, ज्ञान ज्योति प्रकटाने अपनी अमृतमय वाणी से,
को ।
सब का दुःख मिटाया है । भूले-भटके प्राणिजनों को, आपने स्वर्ग दिखाया
मिट जाये उसका सन्ताप । गुरुवर ! तव चरण कमल में, अर्पित करती हूँ शत वन्दन । श्रद्धा सुमन सुवासित जैसे, मलयानिल करते हो नन्दन ॥
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हो जग में अति उत्तम आत्तम, भामन जामणसी सब जाने । कंचन कंकर एक गिने अरु, नन्दन वन्दन एक समाने ॥ तीरथराज महा मुनिराज करे शुभ काज जु जहाज जिसाने । श्रोण सुणे पर पेख लिये नहीं, मो हग होवत दर्श दिवाने ॥१॥ पाठक परम प्रवीन, श्री पुष्कर पावन मुनि । सहज भाव में लीन, जिनशासन में दीपता || २ || वारक मिथ्यावाद, कारक कल्पतरू जिसा । टारक पंच प्रमाद, तारक शिव तरणी गगन || ३ || अवसर वो अनमोल, कब आवे दर्शन करों । आगम ज्ञान झकोल, सशिक्षा कानों परे ॥ ४ ॥ श्रमण संघ सह आप, सुजस राशि पाओ प्रबल । सदा रहो जय जाप, पग-पग आज्ञा सफल हो ॥ ५ ॥
है |
है ॥
मनोकामना
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