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श्री पुष्कर मुनि अभिनन्दन ग्रन्थ : नवम खण्ड
इस चरम अवस्था तक पहुँचने के लिए सूफी को एक कठोर साधना में होकर गुजरना पड़ता है। साधना का मार्गदर्शन करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। सूफी अपने गुरु (शेख, पीर, मुर्शीद) को सर्वाधिक प्रेम करता है । "गुरु और शिष्य (मुरीद ) का यह सम्बन्ध, सूफीमत में भारतवर्ष से आया क्योंकि इस्लामधर्म की यह चीज नहीं है और न इस रूप में यह चीज, भारतवर्ष को छोड़कर अन्यत्र कहीं पायी जाती है। सूफियों की धारणा है कि गुरु (मुर्तीद) में वह सामर्थ्य होती है जिसके द्वारा वह मुरीद (शिष्य) की आध्यात्मिक मार्ग की सारी कठिनाइयों से रक्षा करता है। उसकी वाणी से परमात्मा ही बोलता है क्योंकि मुर्शीद (गुरु) ने अभेदत्व स्थापित कर लिया है। गुरु साधक को साधना की एक मंजिल से दूसरी मंजिल तक पहुँचने में सहायता करता है। यहाँ तक कि परमात्मा के साथ मिलन भी उसके बिना सम्भव नहीं ।" मुरीद (शिष्य) अपने गुरु ( मुर्शीद) का ध्यान करते-करते इतना आगे पहुँच जाता है कि वह सभी मनुष्यों तथा वस्तुओं में गुरु को ही देखता है। इस स्थिति को 'गुरु-लय' कहते हैं। गुरु अपनी दिव्यशक्ति से जान लेता है कि साधक इस साधना में कहाँ तक सफल हो सका है और कहाँ तक वह अपने को एकाकार कर पाया है ? इस अवस्था में पहुँचने पर मुर्शीद (गुरु) उस साधक को अपने सम्प्रदाय के संस्थापक दिवंगत पीर की दिव्यशक्ति के अधीन कर देता है। साधक अपने गुरु की आध्यात्मिक शक्ति के सहारे उस पीर को प्रत्यक्ष करता है । इस स्थिति को 'पीर-लय' कहते हैं। अब साधक मानो उस पीर का अंग बन जाता है और उस पीर की सम्पूर्ण दिव्यशक्ति का अधिकारी बन जाता है। तीसरी अवस्था में मुर्शीद उसको पैगम्बर के निकट पहुँचा देता है और साधक सभी वस्तुओं में पैगम्बर को ही देखने लगता है । इस अवस्था को 'पैगम्बर-लय' कहते हैं। चौथी अवस्था में साधक परमात्मा तक पहुँचता है और सभी वस्तुओं में परमात्मा के दर्शन करता है। इस प्रकार से वह परमात्मा से एकत्व स्थापित करता है। इस अवस्था में पहुँचने के बाद गुरु फिर उसे प्रथमावस्था में गुरु के मार्गदर्शन में सूफी सर्वप्रथम नफ्स से छुटकारा प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। इसके लिए आत्मशुद्धि की आवश्यकता होती है। परम्परावादी इस्लाम में आत्म शुद्धि के लिए पाँच स्तम्भों का उल्लेख किया जाता है२५. (१) लोहीद (एक ईश्वर पर विश्वास), (२) सात (प्रार्थना), (३) रोजा (उपवास), (४) जकात (दान), (५) हम ( काबे की यात्रा)। सूफी सिद्धान्त में एक ईश्वर के जिस रूप पर आस्था की जाती है उसका उल्लेख पहले ही किया जा चुका है पंचकालिक नमाजों (प्रार्थनाओं) के सन्दर्भ में सूफियों की धारणा है कि ईश्वर सर्वकालिक और सर्वत्र विद्यमान है वह किसी निश्चित स्थान पर नहीं; बल्कि अणु-अणु में उसी का साकार प्रदर्शन है । २६ उसका निवास हमारा हृदय भी है और उसी में उसे खोजा जा सकता है। सच्चा प्रेम उसका साक्षात्कार करा सकता है, फिर निश्चित कालों में ही प्रार्थना क्यों ?
ले आता है । २४
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इस्लाम में रमजान के महीने में रोजा (उपवास) रखने का महत्व है । यह मास साल में एक बार आता है। इस मास में दिन में उपवास और हर प्रकार का संयम रखा जाता है। किन्तु रात्रि में किसी प्रकार का भी निषेध नहीं माना जाता। सूफी साधक उपवास को तो अपनाते हैं; किन्तु रमजान के महीने के बन्धन में बंधकर नहीं। उनकी स्वच्छन्द वृत्ति किसी प्रकार के ऐसे बन्धन में नहीं बँधना चाहती है। वे सच्चे प्रेमी हैं और प्रेमी को भूख-प्यास का ध्यान कहाँ रहता है ? प्रेम की भूख पेट की भूख को मिटा देती है । अतः उपवास तो स्वयं ही हो जाया करते हैं । २७ परम्परावादी इस्लामी अपनी परिस्थिति के अनुसार जकात (दान) करते हैं। लेकिन सूफी तो आत्मदान में विश्वास करते हैं । वे अपने परमप्रिय के लिए सर्वस्व समर्पण करने को तत्पर रहते हैं। वे 'मैं' (अहं) का त्याग कर 'तू' (खुदा) में ही मिल जाते हैं। इसी प्रकार 'हज' के सन्दर्भ में भी सूफियों की अलग धारणा है। जो ईश्वर सर्वत्र है उसके लिए 'मक्का' जाने की आवश्यकता क्या है ? ईश्वर का पूर्ण-वैभव जरें-जरें में अथवा अपने अन्तःकरण में ही प्रदर्शित है । उनके अपने कुछ इस तरह इस्लाम के इन पंच स्तम्भों में सूफियों की परम्परागत आस्था नहीं है । परन्तु विशिष्ट आचरण हैं। वे दुराचरण के लिए पश्चात्ताप का मार्ग अपनाते हैं। नफ्स से छुटकारा पाने के लिए फाका (उपवास) आदि करते हैं। 'पश्चात्ताप' में राबिया प्रायः रोया करती थी।" पश्चात्ताप के लिए सूफियों में जिक्र (जप) एवं ध्यान आदि का बड़ा महत्व है। जिक्र का अर्थ है परमात्मा के नाम का स्मरण करना "ला अल्लाह इल्ल अल्लाह" है जि के दो भेदबताये जाते है (२) जी और (२) त्रि-पी
इसका मूल
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जिक्र जली का तात्पर्य है उच्च स्वर में नामोच्चारण करना जिक्र खपी में मन की एकाग्रता के साथ शान्त भाव से चुपचाप नामस्मरण करना । जिक्र के सम्बन्ध में सूफियों के विभिन्न सम्प्रदायों में विभिन्न प्रकार की प्रक्रियाओं का प्रचलन है। 'बहुत सारे साधक ऐसे हैं जो आँख बन्द किये हुए बिना किसी प्रकार की आवाज किये अपने
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