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सूफी सिद्धान्त और साधना
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श्वास-प्रश्वास पर ध्यान लगाये हुए रहते हैं। जब श्वास बाहर आती है तो उसे लगता है जैसे वह 'ला-इल्लाह' कहता है और जब श्वास भीतर जाती है तब वह 'इल अल्लाह' कहता है। कुछ साधकों का कहना है कि जाने या अनजाने प्रत्येक आदमी अपनी साँसों के भीतर जाने और बाहर आने के साथ 'अल्लाह' शब्द का उच्चारण करता है।
जिक्र के लिए सूफी माला (तसबीह) का उपयोग भी करते हैं। इसके द्वारा वे परमात्मा के नाम-स्मरण की संख्याओं का अंदाज लगाते हैं। "जिक्र-जली' की क्रियाओं के सम्बन्ध में दिल्ली के शाह वली अल्लाह ने अपनी पुस्तक "कौलुल जमील" में इस प्रकार उल्लेख किया है--"साधक सहजभाव से बैठ जाता है और जोर से 'अल्लाह' शब्द का उच्चारण करता है। पहले अपनी आवाज को बायें पार्श्व से खींचता है और बाद में अपने गले से। इसके बाद प्रार्थना की मुद्रा में बैठकर पहले से भी अधिक उच्च स्वर में वह 'अल्लाह' शब्द दुहराता है। इस बार दाहिने घुटने से वह प्रथमत: आवाज को खींचता है और इसके बाद अपने बायें पार्श्व से। फिर पैरों को मोड़कर और भी अधिक ऊंचे स्वर में वह 'अल्लाह' शब्द का उच्चारण करता है। प्रथमतः दाहिने घुटने से, इसके बाद बायें पार्श्व से उसकी आवाज इस बार आती है। इसी मुद्रा में बैठा हुआ वह और भी अधिक जोर से 'अल्लाह' शब्द कहता है और इस बार उसकी आवाज का क्रम यों रहता है—पहले बायें घुटने से, फिर दाहिने घुटने से, इसके बाद बायें पार्श्व से और अन्त में सम्मुख से । आवाज का स्वर उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है । इसके बाद साधक मक्का की दिशा में मुंह फेरकर प्रार्थना की मुद्रा में बैठ जाता है और अपनी आँखें बन्द कर लेता है । आवाज को नाभि से खींचकर बायें कन्धे की ओर ले जाता है और 'ला' शब्द का उच्चारण करता है; तब वह 'इलाह' कहता है मानो वह अपनी आवाज मस्तिष्क से खींचता है और अन्त में बायें पार्श्व से आवाज को जैसे खींचता है और पूरी शक्ति लगाकर 'इल्ला'-'ल्लाहु' कहता है।"
श्री रामपूजन तिवारी ने 'रोज' की पुस्तक 'दी दरवीशेज' (The Dervishes by Rose) के आधार पर रिफाइ सम्प्रदाय की जिक्र-क्रियाओं का जो विवरण दिया है उसे हम यहाँ ज्यों का त्यों प्रस्तुत करना चाहते हैं
"रिफाइयों के 'जिक्र' में एक के बाद एक पाँच दृश्य दीख पड़ते हैं और उसमें तीन घण्टे से भी अधिक समय लग जाता है। प्रथम दृश्य में, "जिक्र' में शामिल होने वाले सभी दरवेश अपने शेख की वन्दना करते हैं जो वेदी के सामने बैठा हुआ रहता है। इसके बाद चार पुराने साधक उठकर शेख के निकट जाते हैं। परस्पर एक-दूसरे का आलिंगन कर उनमें से दो शेख के दाहिनी ओर और दो बायीं ओर स्थान ग्रहण करते हैं। अन्य दरवेश उनसे कुछ दूर हटकर उनके सामने अर्द्धवृत्त बनाते हुए, वहाँ बिछी हुई भेड की खाल पर बैठ जाते हैं। बैठने के बाद दरवेश, तकबीर
और फातिहा पढ़ते हैं। इसकी समाप्ति के बाद शेख 'ला-इलाह-इल्ल अल्लाह' का उच्चारण अविराम गति से करने लगता है और अन्य उसके स्वर में स्वर मिलाकर 'अल्लाह' कहने लगते हैं और साथ ही एक-दूसरे से, दूसरी ओर झूमना शुरू कर देते हैं तथा अपने हाथों को कभी चेहरे पर, कभी छाती पर, कभी उदर पर और कभी घुटनों पर रखते जाते हैं । इसके बाद दूसरा दृश्य आरम्भ हो जाता है।
"शेख के दाहिनी ओर बैठा हुआ एक आदमी हमदी मुहम्मदी (पैगम्बर की वन्दना) का पाठ करने लगता है। अन्य 'अल्लाह' शब्द को ही दुहराते रहते हैं और आगे-पीछे झूमने लगते हैं। पन्द्रह मिनट के बाद वे उठ खड़े होते हैं और बायें से दायें और दायें से बायें हिलने लगते हैं। इसमें दाहिने पैर को स्थिर रखते हैं और बायें का ही संचालन करते हैं । अगर शरीर को दाहिनी ओर झुकाते हैं तो बायें पैर को बायीं ओर ले जायेंगे और अगर शरीर को बायीं ओर झुकाते हैं तो बायें पैर को दाहिनी ओर ले जायेंगे। इसके साथ ही 'या अल्लाह' और 'या हूँ' शब्द का ऊँचे स्वर से उच्चारण करते जाते हैं। उस समय कुछ आहें भरते रहते हैं, कुछ की आँखों से आँसू की धारा बहती रहती है, कई फफक-फफक कर रोते रहते हैं और कितनों के शरीर से पानी की बूंदें टपकती रहती हैं। उस समय उनकी आँखें बन्द रहती हैं, चेहरा पीला पड़ा हुआ रहता है। कुछ मिनटों के रुकने के बाद तीसरा दृश्य सामने आ जाता है।
"इसमें उनके अंग-संचालन आदि की क्रियाएं और भी वेगवती हो जाती हैं और भी अधिक क्षिप्रता लाने के लिए उनमें से एक बीच में आकर अपने उदाहरण से अन्य सभी को और अधिक वेग लाने के लिए प्रोत्साहित करता है। थोड़ी देर ठहरने के बाद चौथा दृश्य प्रारम्भ होता है । सभी दरवेश अपने माथे की पगड़ी को उतार फेंकते हैं और एक वृत्त बनाकर खड़े हो जाते हैं और उस कमरे के चारों ओर तीव्र गति से चूमने लगते हैं। बीच-बीच में पांव पटकते जाते हैं और सभी एक ही साथ उछल पड़ते हैं। यह नृत्य बड़े जोरों में 'या अल्लाह' और 'या हूँ' के निरन्तर उच्चारण के साथ चलने लगता है। अत्यधिक ऊँचे स्वर में वे चिल्लाते रहते हैं। शेष और उसकी बगल में बैठने वाले उनको और भी तीव्रता के साथ नाचने के लिए स्वयं जोरों से नाचकर प्रोत्साहन देते हैं। वे इस तरह से नाचते-नाचते ऐसी अवस्था में पहुँचते हैं जहाँ वे पागलों की नाई शेख के हाथों से आग में तपाये हुए लाल लोहे के छड़ों को बढ़-बढ़ कर लेने लगते हैं।
VASANA.
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