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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है कि जो रागादिरूप प्रवृत्ति करता है अर्थात् रागादि आस्रवभावों से निवृत्त नहीं हुआ है । वह पारमार्थिक ज्ञानी नहीं है । कहा भी है
'तेभ्योऽनिवर्तमानस्य पारमाथिकतभेदज्ञानासिद्धः ततः क्रोधाद्यास्रवनिवृत्त्यविनाभाविनी ज्ञानमात्रादेवा. ज्ञानजस्य पौदगलिकस्य कर्मणो बन्धनिरोधः सिद्ध्येत । यत्त्वात्मारवयोर्भेदज्ञानमपि नास्त्रवेभ्यो निवृत्तं भवति तजज्ञानमेव न भवति । समयसार गा०७२ टीका
अर्थ-क्रोधादि अर्थात् रागादि प्रास्रवभावों से जबतक निवृत्त नहीं होता, तब तक उस आत्मा के पारमार्थिक सच्चे भेदज्ञान की सिद्धि नहीं होती है। इसलिये यह सिद्ध हुआ कि क्रोधादिक आस्रवों की निवृत्ति से अर्थात वीतरागचारित्र से अविनाभावी जो सच्चा ज्ञान है, उसी से अज्ञानजन्य पौगलिक कर्मबन्ध का निरोध होता है। जो आत्मा और रागादिप्रास्रवों का भेद ज्ञान है यदि वह भी रागादिआस्रवों से निवृत्त न हुआ तो वह ज्ञान ही नहीं है।
इन आर्षवाक्यों से सिद्ध है कि जो राग-द्वेषरूप प्रवर्तता है उसका ज्ञान, श्रद्धान परमार्थ नहीं है।
जं. ग. 25-2-71/IX/ सुलतानसिंह सकल जीवों के ज्ञायक भाव की सत्ता शंका-आत्मा का ज्ञायकभाव पारिणामिकमाव है या नहीं ? क्या ज्ञायकभाव संसार अवस्था में भी रहता है?
समाधान-जीवस्व, उपयोग, चेतना, ज्ञायक ये सब पर्यायवाची हैं। 'जीव भव्याऽभव्यत्वानि च ॥२७॥ इस सूत्र में जीवत्व को पारिणामिकभाव कहा गया है। इस सूत्र की टीका में श्री पूज्यपाद आचार्य ने 'जीवत्व चैतन्यमित्यर्थः।' इन शब्दों द्वारा जीवत्व का अर्थ चैतन्य किया है।
'चैतन्यान विधायी परिणाम उपयोगः।' अर्थात् चैतन्य का अन्वयी परिणाम उपयोग है। 'स उपयोगी द्विविधः ज्ञानोपयोगः दर्शनोपयोगश्चेति ।' अर्थात् वह उपयोग दो प्रकार का है ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । ज्ञानोपयोग ही ज्ञायकभाव है। इसप्रकार ज्ञायकभाव पारिणामिकभाव है।
'उपयोगो लक्षणम-उपयोग जीव का लक्षण है। अत: संसारअवस्था में भी जीव में ज्ञायकभाव रहता है।
-जं. ग. 12-2-70/VII/ र. ला. जैन सम्यग्ज्ञान की स्वाधीनता पराधीनता शंका-छमस्थ के जिस ज्ञान ने कर्म का यथार्थ स्वरूप जान लिया है वह ज्ञान स्वतंत्र है या कर्माधीन है ?
समाधान- छमस्थ का वह ज्ञान जिसने कर्म का यथार्थ स्वरूप जान लिया है, स्वतंत्र भी है और कर्माधीन भी है। ज्ञायकस्वभाव की दृष्टि से अथवा सामान्यज्ञान की दृष्टि से वह ज्ञान स्वतंत्र है। क्षायोपशमिकज्ञान होने से वह ज्ञान विभाव है, कर्माधीन है । एकान्त नियम नहीं है ।
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