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saferत्व र कृतित्व ]
केवलमदिय- रहियं असहायं तं सहावणाणंति । सष्णाणिवर वियप्पे विहावणाणं हवे दुविहं ॥११॥ सण्णाणं चउभेयं मदिसुदिओही तहेव मणपजं । अण्णाणं तिवियप्पं मदियाई भेवदो चेव ||१२|| नियमसार
अर्थ - जो ज्ञान केवल इन्द्रियरहित और असहाय है वह स्वभावज्ञान है; सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान के भेद से विभावज्ञान दो प्रकार का है। वह ( विभाव) सम्यग्ज्ञान चार भेद वाला है- १ मति, २. श्रुत, ३ अवधि; ४. मन:पर्यय, और ( विभाव) मिथ्याज्ञान मति आदि के भेद से तीनप्रकार का है ।
"केवलज्ञानावयः स्वभावगुणा मतिज्ञानादयो विभावगुणाः ।" पं० का० गाथा ५ टीका
अर्थात् - केवलज्ञान, केवलदर्शन आदि स्वभावगुण हैं । मति आदि क्षायोपशमिकज्ञान विभावगुण हैं । "सर्वघातिस्पर्द्ध कानामुदयक्षयात्तेषामेव सदुपशमाद्द शघातिस्पद्ध कानामुदये क्षायोपशमिकभावो भवति ।" - स० सि० २१५
अर्थात् - वर्तमानकाल में सर्वघातीस्पद्ध कों का उदयाभावी क्षय होने से और आगामी काल की अपेक्षा उन्हीं का सदवस्थारूप उपशम होने से, देशघाती कर्मस्पद्धकों का उदय रहते हुए क्षायोपशमिकभाव होता है । अर्थात् - क्षायोपशमिकज्ञान कर्मों के क्षयोपशम के प्राधीन है, अतः कर्माधीन है । छद्मस्थों के केवलज्ञान का अभाव है उनके मात्र क्षायोपशमिकज्ञान होता है । द्रव्यार्थिकनय से ज्ञान अनादि-अनन्त है, अतः स्वाधीन है। पर्यायार्थिकनय से ज्ञानका उपयोग परिणत होता रहता है अतः पराधीन है ।
-- . ग. 27-6-66 / IX / ज्ञानचन्द एम. एस. सी. समयसार कलश ११६ का अभिप्राय / ज्ञानो का अर्थ
शंका- सोनगढ़ से प्रकाशित समयसार कलश ११६ के भावार्थ में लिखा है - "परवृत्ति ( परपरिणति ) दो प्रकार की है, अश्रद्धारूप और अस्थिरतारूप । ज्ञानी ने अश्रद्धारूप परवृत्ति को छोड़ दिया है और वह अस्थिरतारूप परवृत्ति को जीतने के लिये निजशक्ति को बारम्बार स्पर्श करता है अर्थात् परिणति को स्वरूप के प्रति बारम्बार उन्मुख किया करता है । इसप्रकार सकल परवृत्ति को उखाड़ करके केवलज्ञान प्रगट करता है ।" कलश नं० ११६ का क्या ऐसा अभिप्राय है ?
समाधान - समयसार में कलश ११६ इस प्रकार है
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सन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वम निश रागं समग्रं स्वयं, बारम्बारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतु स्वशक्त स्पृशन् । उच्छिदम् परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भवन्,
नात्मा नित्यनिरास्रवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यात्तदा ॥ ११६ ॥
अर्थ - इस प्रकार है
"यह आत्मा जब ज्ञानी होय है, तब अपने बुद्धिपूर्वक रागकू तो समस्तकू आप दूरी करता संता निरन्तर प्रवर्ते है । बहुरि अबुद्धिपूर्वक रागकू भी जीतने कू बारम्बार अपनी ज्ञानानुभवनरूप शक्तिकू स्पर्शता प्रवर्त है, बहुरि ज्ञानकी पलठनी है ताकू समस्त ही कू दूरि करता संता ज्ञानकू स्वरूप विषं थांभता पूर्ण होता संता प्रवर्ते है । ऐसा ज्ञानी होय तब शाश्वत निरास्रव होय है ।"
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