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व्यक्तित्व र कृतित्व ]
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अन्तरात्मा श्रथवा पुण्य को उपादेय बताने का कारण यह है कि इसके द्वारा आत्मा पवित्र होती है और परमात्म-पद प्राप्त होता है । किन्तु परमात्म-पद प्राप्त हो जाने पर अन्तरात्मा अर्थात् पुण्य का स्वयमेव अभाव हो जाता है, क्योंकि परमात्मा पुण्य-पाप ( अन्तरात्मा, बहिरात्मा ) से रहित हैं ।
ऐसा एक भी जीव नहीं जिसने पुण्य अर्थात् अन्तरात्मा के बिना परमात्म-पद प्राप्त किया हो, क्योंकि कारण के बिना कार्य की सिद्धि नहीं होती । श्रार्ष ग्रन्थों में बहिरात्मा को पाप जीव कहा गया है। निरतिशय बहिरात्मा यद्यपि पाप जीव है तथापि भ्रम से उसको पुण्य जीव मानकर पुण्य का सर्वथा निषेध करना उचित नहीं है ।
पुण्यभाव अर्थात् शुभभाव मोक्ष का भी कारण है ।
श्री वीरसेन आचार्य तथा श्री यतिवृषभाचार्य ने मंगल के पर्यायवाची नामों का उल्लेख करते हुए पुण्य और शुभ को पर्यायवाची कहा है। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने शुभ भाव का लक्षरण 'रयणसार' में इसप्रकार कहा है
अर्थ - छह द्रव्य, पंचास्तिकाय, सात तत्त्व, नव पदार्थ, बंध, मोक्ष, बंध के कारण, मोक्ष के कारण, बारह भावना, रत्नत्रय आर्य ( शुभ, श्र ेष्ठ ) कर्म, दया ग्रादि धर्म, इत्यादिक भावों में जो वर्तन करता है वह शुभ भाव होता है ।
श्री प्रवचनसार गाथा २३० की टीका में शुभभाव के कुछ पर्यायवाची नाम दिये हैं जो इस प्रकार हैं
दश्वत्थि कायछपणतच्चपयत्थेसु सत्तणवएसु । बंधणमोक्खे तक्कारणरूवे वारसवेक्खे ||६४ || रयणत्तयस्सरूवे अज्जाकम्मे दयाइसद्धम्मे । इच्चे माइगो जो वट्टइ सो होइ सुहभावो ॥ ६५ ॥
अपहृतसंयमः सरागचारित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थः ।
अर्थ - अपहृत - संयम, सरागचारित्र और शुभोपयोग ये एकार्थवाची शब्द हैं ।
उपर्युक्त लक्षणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि शुभ भाव सम्यग्दृष्टि के संभव हैं, मिथ्यादृष्टि के शुभ भाव संभव नहीं हैं ।
पुण्य भाव से अर्थात् शुभभाव से जहाँ पुण्य कर्म का बंध होता है वहाँ संवर और निर्जरा भी होती है । यही कारण है कि अन्तरात्मा अर्थात् जीव पुण्य को परमात्मा का कारण बतलाया गया है जिसका उल्लेख सप्रमाण पीछे किया जा चुका है। श्री वीरसेन आचार्य ने स्पष्ट शब्दों में शुभ भाव से संवर और निर्जरा का उल्लेख किया है ।
'सुह-सुद्ध - परिणामेहि कम्मक्खयामावे तक्खयानुववत्तीदो ।' ( जयधवल पु० १ १०६ )
अर्थ -- यदि शुभ व शुद्ध परिणामों से कर्मों का क्षय न माना जाय तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं
सकता है।
श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने भी इसी बात को 'प्रवचनसार' में कहा है
एसा पसत्थभूवा समाणाणं वा पुणो घरत्थाण । चरिया परेत्ति भणिदा ता एव परं लहवि सोक्खं ॥ ४५ ॥
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