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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ-यह प्रशस्तभूत चर्या अर्थात् पुण्य, शुभ भाव मुनियों के होते हैं और गृहस्थों के तो मुख्य रूप से होते हैं और उसी से परम सौख्य को अर्थात् मोक्ष को प्राप्त होते हैं, ऐसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है।
श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने भी इस गाथा की टीका में यही कहा है
'गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्म-प्रकाशनस्याभावात्कषाय-सभावारप्रवर्तमानोऽपि स्फटिक-सम्पर्कगातेजस इवैधसा रागसंयोगेन शुद्धात्मनोनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः।'
अर्थात-शुभोपयोग गृहस्थ के तो, सर्वविरति के प्रभाव से शुद्धात्मप्रकाशन का प्रभाव होने से, कषाय के सद्भाव के कारण प्रवर्तमान होता हुआ भी शुभभाव मुख्य है। क्योंकि गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है, जिस प्रकार ईन्धन को स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है। इसलिये वह शुभोपयोग क्रमशः परम-निर्वाण के सौख्य का कारण होता है।
श्री अमृतचन्द्र आचार्य पुनः 'प्रवचनसार' गाथा २५६ की टोका में शुभोपयोग अर्थात् पुण्य-भाव को मोक्ष का कारण बतलाते हैं।
'शुभोपयोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्वकोपुनर्भावोपलम्भः।' अर्थ सर्वज्ञ-कथित वस्तुओं में उपर्युक्त शुभोपयोग का फल पुण्य-संचय-पूर्वक मोक्ष की प्राप्ति है। 'समयसार' गाथा १४५ की टीका में भी श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने इसी प्रकार कहा है
'शुभाशुभौ मोक्षबन्धमागौं तु प्रत्येक केवलजीवपुद्गलमयत्वादनेको तदनेकत्वे सत्यपि केवलपुद्गलमयबन्धमार्गाश्रितत्वेनाश्रयाभेदादेकं कर्म ।'
यहाँ पर जीव के शुभ भाव को मोक्षमार्ग कहा गया है।
जिणवरचरणंबुरुहं णमंति जे परममत्तिरायेण ।
ते जम्मवेलिमूलं खणंति वरभावसत्थेण ॥१५३॥ ( भावपाहुड) इस गाथा में श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने कहा है कि जो भव्य जीव उत्तम भक्ति और अनुराग से जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों को नमस्कार करते हैं, वे उस भक्ति-मयी उत्तम शुभभावरूप हथियार के द्वारा संसाररूपी बेल को जड़ से खोद देते हैं अर्थात् संसार का जड़ मूल से नाश कर देते हैं।
तं देवाधिदेवदेवं जदिवरवसहं गुरु तिलोयस्स । पणमंति जे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खयं जंति ॥६॥
(श्रीकुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार पृ० ९०)
अर्थात्-जो मनुष्य देवाधिदेव, यतिवरवृषभ, तीन लोक के गुरु श्री जिनेन्द्र भगवान की आराधना करता है वह आराधनारूप शुभ-भाव से अक्षय अनन्त सुख अर्थात् मोक्ष सुख को प्राप्त करता है।
अरहंतणमोकारं भावेण य जो करेवि पयदमदी । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥७-५॥ [मू. चा.]
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