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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
'अपि शब्द से यह जीव जब अर्हन्त अथवा सिद्ध परमेष्ठी हो जाता है तो यह पूण्य और पाप दोनों से रहित हो जाता है। जीव पदार्थ का वर्णन करते हुए सामान्य से गुणस्थानों में से मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवी जीव तो पापी हैं। मिश्रगुणस्थान वाले जीव पुण्य-पापरूप हैं; क्योंकि उनके एक साथ सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप मिले हुए परिणाम होते हैं तथा असंयत सम्यग्दृष्टि सम्यक्त्व सहित होने से, देशसंयत सम्यक्त्व और व्रत से सहित होने से और प्रमत्त संयत आदि गुणस्थान-वर्ती जीव सम्यक्त्व और महाव्रत से सहित होने से पुण्यात्मा जीव हैं।'
जीवाजीवौ पुरा प्रोक्तौ, सम्यक्त्वव्रतज्ञानवान् ।
जीवः पुण्यं तु पापं, स्यान्मिथ्यात्वादिकलंकवान् ॥ आचारसार ३२७ अर्थ-सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र को धारण करने वाला अन्तरात्मा पुण्यरूप है और जो मिथ्यात्व आदि से कलंकित हैं वे पापरूप हैं।
यदि यह शंका की जाय कि अन्तरात्मा पुण्य-पाप दोनों ही प्रकार के कर्मों का बन्ध करता है फिर भी उपर्युक्त आर्ष ग्रंथों में उसको पुण्य जीव क्यों कहा गया है ? तो यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि अन्तरात्मा के कर्म-बन्ध होने पर भी संवर-पूर्वक कर्म-निर्जरा अधिक होती है। इसलिए अन्तरात्मा के द्वारा जीव पवित्र होकर परमात्मा बन जाता है । अतः उपर्युक्त आर्ष ग्रन्थों में अन्तरात्मा को पुण्य कहा जाना उचित है । क्योंकि पुण्य वह है जिसके द्वारा आत्मा पवित्र होती है। श्री पूज्यपाद आचार्य ने 'समाधितन्त्र' में कहा भी है
बहिरन्तः परश्चेपि विधात्मा सर्वदेहिषु । ।
उपेयात्तत्र परमं मध्योपायान् बहिस्त्यजेत् ॥४॥ संस्कृत टीका-'उपेयादिति । तत्र तेषु विधात्मसु मध्ये उपेयात् स्वीकुर्यात् परमं परमात्मानं । कस्मात् ? मध्योपायात् मध्योऽन्तरात्मा स एवोपायस्तस्मात् तथा बहिः बहिरात्मानं मध्योपायादेव त्यजेत् ॥४॥
अर्थात्-सर्व संसारी जीव तीन प्रकार के हैं, बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा। आत्मा की इन तीन प्रकार की अवस्थानों में अंतरात्मा के द्वारा परमात्माअवस्था को प्राप्त करना चाहिये और बहिरात्म-अवस्था को छोड़ना चाहिये।
श्री पूज्यपाद आचार्य ने 'समाधितंत्र' में 'अन्तरात्मा' द्वारा परमात्म-अवस्था को प्राप्त करना चाहिए।' इन शब्दों द्वारा यह बतलाया है कि 'अन्तरात्मा द्वारा प्रात्मा पवित्र होती है। और 'सर्वार्थसिद्धि' में 'पुण्य' के द्वारा प्रात्मा पवित्र होती है' यह कहा है। इन दोनों कथनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्तरात्मा पण्य है। उपयुक्त श्लोक में बहिरात्मा अर्थात् पाप को तो त्याज्य बतलाया है। इसका कारण यह है कि पण्य के द्वारा आत्मा पवित्र होती है अर्थात् परमात्म-पद प्राप्त होता है, उसको त्याज्य कसे कहा जा सकता है । यदि कोई व्यक्ति पुण्य को हेय जान ग्रहण न करे तो उसकी आत्मा पवित्र नहीं हो सकती अर्थात् वह परमात्म-पद प्राप्त नहीं कर सकता।
श्री पं० दौलतरामजी ने भी उपर्युक्त श्लोक के अनुसार बहिरात्मा को हेय बतलाया है और अन्तरात्मा को उपादेय बतलाया है
बहिरातमता हेय जानि तजि, अन्तर आतम हूजे। परमातम को ध्याय निरन्तर, जो नित आनन्द पूजे ॥ छहढ़ाला ३१६
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