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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार :
अर्थ-जैसा-जैसा रागादि आस्रवों से निवृत्त होता जाता है अर्थात् जैसे-जैसे चारित्र में वृद्धि होती जाती है वैसा-वैसा विज्ञानघन स्वभाव होता जाता है विज्ञानघन स्वभाव उतना होता है जितना रागादि आस्रवों से निवृत्त होता है अर्थात् जितना चारित्र होता है।
बारहवें गुणस्थान का यथाख्यातचारित्र होने पर ही पूर्ण ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान होता है । यथाख्यातचारित्र के बिना केवलज्ञान नहीं हो सकता है।
__यदि जैनसंदेश के सम्पादक महोदय मात्सर्यभाव से रहित होकर शंका के समाधानों की आलोचना करें तो उससे सम्पादकजी को तथा समाधान-कर्ता दोनों को लाभ होगा। किंतु जो समाधान आर्ष ग्रन्थों के आधार पर किये गये हैं उनकी आलोचना करने में वे व्यर्थ अपना समय व शक्ति नष्ट करते हैं। आपने एक बार यह आलोचना की थी कि सम्यग्दृष्टि द्रव्यलिंगीमनि नहीं होता है, मिथ्याष्टि ही द्रव्यलिंगी मनि होता है। तब गोम्मटसार की टीका तथा त्रिलोकसार का प्रमाण देकर यह सिद्ध किया गया था कि अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कर्मप्रकृतियों के उदय में सम्यग्दृष्टि भी द्रव्यलिंगीमुनि होता है। एक बार आपने यह प्रालोचना की थी कि तेरहवें गुरणस्थान में 'योग' प्रौदयिकभाव नहीं है, किंतु क्षायिकभाव है और अपने कथन को सिद्ध करने के लिये राजवार्तिक की पंक्तियों का अर्थ गलत भी करना पड़ा था। तब धवल आदि ग्रथों का प्रमाण देकर यह बतलाया गया था कि शरीरनामकर्मोदय के कारण तेरहवेंगुणस्थान में योग औदयिकभाव है, क्षायिकभाव नहीं है।
जिन पार्षनथों का प्रमाण इस लेख में दिया गया है, यदि उन ग्रन्थों की स्वाध्याय करली गई होती तो १८-१२-६९ के जैनसन्देश में इसप्रकार का लेख न लिखा जाता। विद्वान की सफलता चारित्र धारणकर आत्मध्यान में लीनता से है, न कि मात्स्यं भाव में।
आत्मध्यानरतिज्ञेयं विद्वत्तायाः परं फलम् ।
अशेषशास्त्रशास्तृत्वं संसारोऽभाषि धोधनः॥ इस श्लोक में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है-एक विद्वान को सफलता इसी में है कि प्रात्मध्यान में लीनता हो । यदि वह नहीं है तो उसका सम्पूर्ण शास्त्रों का शास्त्रीपना ( पठन-पाठन विवेचनादि कार्य ) संसार के सिवाय और कुछ नहीं है। उसे भी सांसारिक धंधा अथवा संसार-परिभ्रमण का ही एक अंग समझना चाहिए। साथ में यह भी समझना चाहिए कि उस विद्वान ने शास्त्रों का महान् ज्ञान प्राप्त करके भी अपने जीवन में वास्तविक सफलता प्राप्त नहीं की।
-जं.ग. 3-10/6/71/VI-VII/ जयचन्दप्रसाद
-जं. ग. 20-1-72/VII/ सुभाषचन्द परद्रव्य में राग ( देवादिक में भक्ति ) कथंचित् सम्यक्त्वादि का कारण है शंका-परद्रव्य में राग करने से क्या आत्मतत्त्व को श्रद्धा व सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति हो सकती है ?
समाधान—जिस प्रकार सूर्य का राग लालिमा दो प्रकार की होती है (१) प्रातःकाल का राग (२) संध्या समय का राग; उसीप्रकार जीव का परद्रव्य में राग दो प्रकार का होता है (१) प्रशस्तराग (२) अप्रशस्तराग (जिस प्रकार प्रातःकालीन राग प्रकाश का कारण है और संध्या समय का राग अंधकार का कारण है; ) उसी प्रकार वीतरागदेव, निग्रंन्थगुरु, दयामयी धर्म में प्रशस्तराग सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय का कारण है तथा स्त्री पुत्रादि में अप्रशस्तराग संसार का कारण है । श्री गुणभद्राचार्य ने कहा भी है
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