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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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प्रवचनसार की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है- सकल पदार्थों के ज्ञेयाकारों के साथ मिलित होता हुआ भी एक ज्ञान जिसका श्राकार है, ऐसे आत्मा का श्रद्धान करता हुआ और अनुभव करता हुआ भी यदि आत्मा अपने में ही संयमित होकर नहीं रहता, तो वह संयत कैसे होगा ? अर्थात् संयत नहीं होगा। क्योंकि उसकी चैतन्य परिणति अनादि मोह, राग, द्वेष की वासना से जनित परद्रव्य में भ्रमरणता के कारण स्वेच्छाचारिणी हो रही है और उसके ऐसी चैतन्य परिणति का अभाव है जो अपने में ही रहने से निर्वासन (विषय- कषाय से रहित ) व निष्कम्परूप से एक तत्व में लीन हो । यथोक्त आत्मतत्व की प्रतीतिरूप श्रद्धान व यथोक्त आत्मतत्त्व का अनुभूतिरूप ज्ञान असंयत के क्या करेगा ? असंयत के श्रात्मतत्त्व का श्रद्धान व ग्रनुभूतिरूप ज्ञान व्यर्थ है, क्योंकि संयमरहित श्रद्धान व ज्ञान से सिद्धि नहीं होती है ।
"यथा प्रदीपसहितपुरुषः स्वकीयपौरुषबलेन कूपपतनाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं प्रदीपो दृष्टिर्वा कि करोति न किमपि । तथायं जीवः श्रद्धानज्ञानसहितोपि पौरुषस्थानीयचारित्रबलेन रागादिविकल्परूपादसंयमाद्यदि न निवर्तते तदा तस्य श्रद्धानं ज्ञानं वा कि कुर्यान किमपीति । "
श्री अमृतचन्द्राचार्य के कथन को श्री जयसेनाचार्य दृष्टान्त द्वारा समझाते हैं
जैसे दीपक को रखने वाला पुरुष अपने पुरुषार्थं के बल से कूप पतन से यदि नहीं बचता है तो उसका श्रद्धान दीपक व दृष्टि कुछ भी कार्यकारी नहीं हुई । तैसे ही यह जीव श्रद्धान, ज्ञानसहित भी है, परन्तु पौरुष अर्थात् चारित्र के बल से रागद्वेषादि विकल्परूप असंयमभाव से यदि अपने प्रापको नहीं हटाता है अर्थात् चारित्र धारण नहीं करता है तो श्रद्धान व ज्ञान उसका क्या हित कर सकते हैं ? कुछ हित नहीं कर सकते हैं ।
श्री ब्रह्मदेवसूरि ने भी कहा है – “यस्तु रागादिभेवविज्ञाने जाते सति रागादिकं त्यजति तस्य रागादिभेदविज्ञानफलमस्तीति ज्ञातव्यम् ।"
अर्थात् रागादि और आत्मस्वभाव का भेदविज्ञान हो जाने पर जो मनुष्य रागादिक छोड़ते हैं उन्हीं का भेदविज्ञान सफल होता है, ऐसा जानना चाहिये ।
श्री समन्तभद्राचार्य ने कहा है कि रागादिक चारित्र धारण करने से दूर होते हैं, अतः जो मनुष्य चारित्र धारण करता है उसी का भेदविज्ञान सफल होता है ।
तत्त्वार्थसूत्र में यद्यपि सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र ऐसा क्रम है, किन्तु श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने मोक्षमागंचूलिका में सम्यक् चारित्र, ज्ञान, दर्शन ऐसा भी क्रम रखा है ।
जो घरवि णावि पेच्छदि अध्याणं अध्पणा अणण्णमयं । सो चारितं गाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होवि ॥
जो आत्मा को आत्मा से अनन्यमय आचरता है, जानता है देखता है वह चारित्र है, ज्ञान है दर्शन है ऐसा निश्चित है ।
मनुष्यों में चारित्र, ज्ञान, दर्शन युगपत् भी होते हैं, क्योंकि जो द्रव्यलगी मिथ्यादृष्टिमुनि प्रथमगुणस्थान से सातवें में जाता है उसके चारित्र, ज्ञान, दर्शन युगपत् होते हैं। श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा भी है
"यथा यथालवेभ्यश्च निवर्तते तथा तथा विज्ञानघनस्वभावो भवतीति । तावद्विज्ञान- घनस्वभावो भवति यावत्सम्यगात्रवेभ्यो निवर्तते ।"
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