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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
इस पद्य को लिखते समय वे यह भूल जाते हैं कि आचार्यों ने जहाँ सम्यग्ज्ञानरहित व्रत आदि क्रियाओं को निरर्थक कहा है वहाँ पर चारित्ररहित ज्ञानको भी व्यर्थं कहा है ।
हृतं ज्ञानं क्रिया होनं हता चाज्ञानिनां क्रिया ।
धावन किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पंगुलः ||१|| राजवार्तिक
यहाँ पर श्री अकलंकदेव ने बतलाया है कि चारित्र के बिना ज्ञान किसी काम का नहीं है और ज्ञान के बिना व्रतआदिरूप क्रिया भी व्यर्थ हैं । वन में आग लग जाने पर अंधा पुरुष इधर-उधर दौड़ता तो है, किन्तु वन से निकलने का यथार्थं मार्ग ज्ञात न होने के कारण वन में जलकर मर जाता है । उसी प्रकार आँखों वाला यथार्थ कारण भागता नहीं है और वन में जलकर मर जाता है । जिस प्रकार व्रत हुए भी ज्ञान के बिना दुःखी है उसी प्रकार असंयतसम्यग्दष्टि भी विषय कषाय के कारण दुःखी है । श्री अकलंक देव ने इन दोनों प्रकार के जीवों को समकक्ष रखा है ।
इसी बात को श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने शीलपाहुड में कहा है
मार्ग जानते हुए भी लंगड़ा होने के पालन करते
गाणं चरितहीणं लिगग्गहणं च दंसणविहूणं । संजमहीणी य तवो जइ चरइ णिरत्ययं सव्वं ॥ ५ ॥
जिस प्रकार दर्शन रहित मुनि-लिंग ग्रहण करना निरर्थक है उसी प्रकार चारित्ररहित सम्यग्ज्ञान भी
निरर्थक है ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने 'दंसणमूलो धम्मो । चारितं खलुधम्मो ।' इन शब्दों द्वारा भी यह बतलाया है कि वह दर्शनरूप जड़ व्यथं है जो चारित्ररूप धर्मवृक्ष को उत्पन्न न करे । क्योंकि, मोक्षरूप फल चारित्ररूप धर्मवृक्ष पर ही लगेगा, न कि दर्शनरूप धर्मवृक्ष की जड़ पर ।
श्री अमृतचन्द्राचार्य ने भी कहा है
"यस्वास्मात्रावयोर्भेदज्ञानमपि नास्त्रवेभ्यो निवृत्तं भवति तज्ज्ञानमेव न भवतीति ज्ञानांशो ज्ञाननयोपि
निरस्तः ।"
जो आत्मा और क्रोधादि श्रास्रव के भेद को जानता हुप्रा भी क्रोधादि आस्रवों से निवृत्त न हुआ तो वह ज्ञान ही नहीं है । ऐसा कहने से ज्ञान का अंश ऐसे ज्ञाननय का निराकरण हुआ अर्थात् चारित्ररहित ज्ञान का निराकरण हुआ ।
श्री जयसेनाचार्य भी कहते हैं
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"यदि रागादिभ्यो निवृत्तं न भवति तत्सम्यग्भेदज्ञानमेव न भवति ।"
यदि रागादिभावों से निवृत्त न हुआ अर्थात् यदि रागादिभावों का त्याग नहीं करता है तो उसके सम्यक् भेदज्ञान ही नहीं होता है ।
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"सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बित विशदेकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽप्यनुभवन्नपि यदि स्वस्मिन्नेव संयम्य न वर्तयति तदानादिमोह रागद्व ेषवासनोपज नित परद्रव्यचङक्रमणस्वं रिष्याश्चि वृतेः स्वस्मिन्नेव स्थानान्निर्वासन नि: कम्पैक तत्वमूच्छित चित्यभावात् कथं नाम संयतः स्यात् । असंयतस्य च यथोदितात्मतत्त्वप्रतीरूपभद्धानं यथोदितात्मतत्त्वानुभूतिरूपं ज्ञानं वा कि कुर्यात् ? ततः संयमशून्यात् श्रद्धानात् ज्ञानाद्वा नास्ति सिद्धिः ।"
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