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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ६११ अर्थ-इस दुर्लभ मनुष्यपर्याय को प्राप्त करके भी जो इन्द्रियों के विषयों में रमते हैं, वे मूढ़ दिव्यरत्न को पाकर उसे भस्म के लिये जलाकर राख कर डालते हैं।
अनुकूल वातावरण अर्थात् कृटुम्ब व आजीविकादि की चिन्ता न होने पर भी और शरीर के निरोग होने पर भी संयम की उपेक्षाकर एकदेशसंयम भी धारण नहीं करते हैं, असंयत रहकर अपने आपको कृत्कृत्य मानते हैं, वे मनुष्य विषयों और कषायों के दास हैं। कहा भी है
अवतित्वं प्रमादित्वं निर्दयत्वमृतृप्तता ।
इन्द्रियेच्छानुवतित्वं सन्तः प्राहुरसंयमम् ॥११७॥ उपासकाध्ययन व्रतों को पालन न करना, अच्छे कामों में प्रालस्य करना, निर्दय होना, सदा असंतुष्ट रहना और इन्द्रियों की रुचि के अनुसार प्रवृत्ति करना। इन सबको सन्त पुरुषों ने अर्थात् प्राचार्यों ने असंयम का लक्षण कहा है। श्री अमितगतिआचार्य ने भी असंयम का लक्षण निम्नप्रकार कहा है
हिंसने वितथेस्तेये मैथने च परिग्रहे। मनोवृत्तिरचारित्रं कारणं कर्मसंततेः ॥ ३० ॥ रागतो द्वषतो भावं परद्रव्ये शुभाशुभम् ।
आत्मा कुर्वनचारित्र स्वचारित्रपराङ मुखः ॥ ३१ ॥ हिंसा में, झूठ में, चोरी में, मैथुन में और परिग्रह में मनोवृत्ति का होना अचारित्र है जो कि कर्मसंतति का कारण है । परद्रव्य में राग से या द्वेष से शुभ या अशुभभावों को करनेवाला असंयत है और वह निजगुण जो चारित्र उससे विमुख है।
यद्यपि मनुष्य सम्यग्दष्टि है और तप भी करता है, किन्तु अणुव्रत या महाव्रत धारण न करने से असंयत : है तो असंयम के कारण वह सम्यग्दृष्टि मनुष्य बहुतर और दृढ़तर कर्मों का बंध करता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने तथा सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वसुनन्दि आचार्य ने कहा भी है
सम्मादिद्धिस्स वि अविरदस्स ण तवो महागुणो होदि ।
होदि हु हस्थिण्हाणं चुदच्छिदकम्म तं तस्स ॥४९॥ मूलाचार संस्कृत टीका-तपसा निर्जरयति कर्मासंयमभावेन बहुतरं गृह्णाति कठिनं च करोतीति ।
गजस्नान व लकड़ी में छिद्र करनेवाले बर्मा के समान असंयतसम्यग्दृष्टि का तप भी गुणकारी नहीं है, क्योंकि तप के द्वारा जितने कर्मों की निर्जरा करता है, असंयतभाव के द्वारा उससे अधिक व दृढ़तर कर्मों को बांध लेता है।
प्रात्म-अहितकारी विषयों व कषायों के प्राधीन होकर संयम में अरुचि रखनेवाले कुछ ऐसे ज्ञानाभासी विद्वान हैं जो स्वयं तो अणुव्रत या महाव्रत धारण नहीं करते हैं और अपनी पूजा व प्रतिष्ठा को रखने के लिये, संयमियों को हीन दिखलाने के लिये तथा अपने शिष्यों को संयम धारण से हतोत्साह करने के लिये मोटे अक्षरों में निम्न पद्य लिखते हैं
मुनिव्रत धार अनन्त बार ग्रीवक उपजायो। 4 निज-आत्म ज्ञान बिना सूख लेश न पायो॥छहढाला, दौलतराम
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