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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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विभूततमसो रागस्तपः श्रतनिबन्धनः । संध्याराग इवार्कस्य जन्तोरभ्युदयायसः॥ विहाय व्याप्तमालोकं पुरस्कृत्य पुनस्तमः। रविवद्रागमागच्छन पातालतलमृच्छति ॥
इसका भाव ऊपर कहा जा चुका है । श्री कुंदकुंदाचार्य ने भी कहा है
एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पूणा घरस्थाणं । चरिया परेत्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ॥ गाथा २५४ प्र० सा०
श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका-गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्कषायसद्धावात्प्रवतंमानोऽपि स्फटिकसंपर्के तेजस इवैधसा रागसंयोगेन शुद्धात्मनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः ।
श्री जयसेनाचार्यकृत टोका-विषय कषायनिमित्तोत्पन्न नातंरौद्रध्यानद्वयेन परिणतानां गृहस्थानामात्माभितनिश्चयधर्मस्यावकाशो नास्ति, वैयावृत्यादिधर्मेण दुनिवञ्चना भवति तपोधनसंसर्गेण निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गोपदेशलाभो भवति । ततश्च परंपरया निर्वाणं लभत इत्यभिप्रायः ।
रागो पसस्थभूदो वत्थुविसेसेण फलदि विवरीदं । णाणाभूमिगदाणिह वीजाणिव सस्सकालम्हि ॥ २५५ ।। छदुमत्यविहिदवत्थुसु ववणिय मज्झयणझाणदाणरदो।
ण लहवि अपुणठमावं भावं सादप्पगं लहदि ॥ २५६ ॥ प्र० सा० श्री अमृतचन्द्राचार्य कृत टीका-शुभोपयोगस्य सर्वज्ञव्यवस्थापितवस्तुषु प्रणिहितस्य पुण्योपचयपूर्वकोऽपुन. र्भावोपलम्मः किल फलं तत्तु कारणवपरीत्याद्विपर्यय एव । तत्र छद्मस्थव्यवस्थापितवस्तूनि कारणवपरीत्यं, तेषु व्रतनियमाध्ययनध्यानवानरतत्वप्रणिहितस्य शुभोपयोगस्यापुनर्भावशून्यकेवल-पुण्यापसवप्राप्तिः फलवपरीत्यं, तत्सुदेव. मनुजत्वम् ॥
यहाँ पर श्री कुंदकुंदाचार्य ने कहा है कि यह प्रशस्तरागरूप वैयावृत्त्यचर्या श्रमण के गौण होती है और गृहस्थ के तो मुख्य होती है, क्योंकि इसके द्वारा गृहस्थ परम अर्थात् मोक्षसुख को प्राप्त होता है। इसकी टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है कि-सर्वविरति के न होने से शुद्धात्मप्रकाशन के अभाव के कारण कषाय में प्रवर्तमान गृहस्थ के वह गैयावृत्त्यरूप शुभोपयोग मुख्य है, क्योंकि, जैसे ईंधन को स्फटिक के सम्पर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है और क्रमशः जल उठता है, उसी प्रकार गृहस्थ को साधु में राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है और वह शुभोपयोग क्रमशः परम निर्वाण सौख्य का कारण होता है ।
इसको स्पष्ट करने के लिये श्री जयसेनाचार्य ने कहा है-यदि गृहस्थ मैयावृत्त्यादि शुभोपयोग से वर्तन करें तो वे खोटे ( आतं-रौद्र ) ध्यान से बचते हैं तथा साधुओं की संगति से उनको निश्चय व व्यवहार मोक्षमार्ग का उपदेश मिलता है, इससे वे गृहस्थ परम्परा से निर्वाण को प्राप्त करते हैं, ऐसा गाथा का अभिप्राय है।
श्री कुचकुवाचार्य कहते हैं-जैसे एक ही बीज का उत्तम भूमि में उत्तम फल होगा और विपरीत भूमि में विपरीत फल होता है उसीप्रकार प्रशस्तराग यदि वीतरागदेव, निग्रन्थ गुरु, तथा दयामयी धर्म में होता है तो उत्तम फल देता है यदि छद्मस्थ कथित देव-गुरु-धर्म ( कुदेव कुगुरु कुधर्म ) में है तो मोक्ष ( उत्तम फल ) को नहीं देता है सातारूप भाव को देता है।
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