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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : मुक्तश्चेत् प्राक्भवेद्बन्धो नो बंधो मोचनं कथम् ।
अबन्धे मोचनं नैव मुञ्चेरर्थो निरर्थकः ॥ अर्थ-यदि जीव मुक्त है तो पहले इस जीव के बन्ध अवश्य होना चाहिए, क्योंकि यदि बन्ध न हो तो मोक्ष (छूटना ) कैसे हो सकता है । इसलिये अबन्ध ( न बन्धे हुए ) की मुक्ति नहीं हुआ करती।
कोई मनुष्य पहले बँधा हुआ हो, फिर छूटे, तब वह मुक्त कहलाता है। ऐसे ही जो जीव पहले कर्मों से बँधा हो उसीको मोक्ष होती है ।
निश्चयनय की अपेक्षा बन्ध है ही नहीं। इसलिये निश्चयनय से बन्धपूर्वक मोक्ष भी नहीं है। 'बंधश्च निश्चयनयेन नास्ति, तथा बंधपूर्वको मोक्षोऽपि ।'
इसप्रकार निश्चयनय को उपादेय और व्यवहारनय को हेय मानने से संसार और मोक्ष के अभाव का प्रसंग आजायगा। इसके अतिरिक्त 'मोक्षमार्ग के अभाव' का दूसरा दूषण आ जायगा।
२. 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' [ मोक्षशास्त्र ]
अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों मोक्षमार्ग हैं। परन्तु निश्चयनय का विषय भभेद है अतः निश्चयनय की दृष्टि में न दर्शन है, न ज्ञान है और न चारित्र है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा भी है
ववहारेणुवदिस्सइ णाणिस्स चरित्तदसणं गाणं ।
णवि णाणं ण चरित्तं ण दसणं जाणगो सुद्धो ॥७॥ [समयसार] अर्थात्-आत्मा के चारित्र, दर्शन, ज्ञान ये तीनों भाव व्यवहारनय से हैं। निश्चयनय से ज्ञान भी नहीं है, दर्शन भी नहीं है, चारित्र भी नहीं है, आत्मा तो ज्ञायकशुद्ध है ।।
निश्चयनय की दृष्टि में जब ज्ञान-दर्शन-चारित्र ही नहीं हैं तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र मोक्षमार्ग है यह सूत्र व्यर्थ हो जाता है। इस सम्बन्ध में प्राचीन गाथा भी है
जह जिणमयं पवज्जइ तो मा ववहार णिच्छए मुयह।
एक्केण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण पुण तच्चं ॥ अर्थात-जो तुम जिनमत को प्रवर्ताना चाहते हो तो व्यवहार और निश्चय इन दोनों नयों को मत छोड़ो, क्योंकि एक व्यवहारनय के बिना तो तीर्थ अर्थात् मोक्षमार्ग और दूसरे निश्चयनय के बिना तत्त्व अर्थात् वस्तुस्वभाव का नाश हो जायगा ।
इन पार्षवाक्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग व्यवहारनय के आश्रित है। निश्चयनय के आश्रित मोक्षमार्ग नहीं है। निश्चयनय का विषय जब बन्ध और मोक्ष ही नहीं है तो मोक्षमार्ग कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है। इसप्रकार व्यवहारनय के हेय मान लेने से मोक्षमार्ग के अभाव का प्रसंग आता है। तीसरा दूषण 'सर्वज्ञता' के अभाव का आता है जो निम्न प्रकार है
जाणदि पस्सदि सव्वे ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदिणियमेण अप्पाणं ॥१५९॥ [नियमसार]
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