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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
'व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वात्.... निश्चयनयस्तु द्रव्याश्रित्वात् ' ( समयसार टीका )
अर्थात् व्यवहारनय पर्यायाश्रित है । निश्चयनय द्रव्याश्रित है ।
भगवान ने दोनों ( द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक ) नयों का कथन किया है। भगवान का उपदेश भी दोनों नयों के आधीन है, एक नय आधीन नहीं है । इसी बातको श्री अमृतचन्द्राचार्य ने कहा है
'द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकश्च तत्र न खल्वेकनयायत्तादेशना किंतु तदुभयायत्ता । '
अर्थात् द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों ही नय भगवान ने कहे हैं । भगवान का उपदेश एक नय के अधीन नहीं है, किन्तु दोनों नयों के अधीन है ।
यदि निश्चय ( द्रव्यार्थिक ) नय को उपादेय और व्यवहार ( पर्यायार्थिक ) नय को हेय मान लिया जाये तो निम्न दोषों का प्रसंग आ जाएगा --
१. 'मोक्ष का प्रभाव हो जाएगा ।' निश्चयनय का विषय द्रव्य अर्थात् सामान्य है पर्यायें नहीं हैं । बन्धमोक्ष, संसारी और सिद्ध पर्यायें हैं जो निश्चयनय का विषय नहीं, किंतु बन्धमोक्ष के विकल्प से रहित सामान्यआत्मा अर्थात् अबन्ध आत्मा है। श्री कुन्दकुन्द भगवान तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य ने समयसार में कहा भी है
वि होदि अप्पमत्तो ण, पमसो जाणओ दु जो भावो । एवं भणति सुद्ध णाओ जो, सो उ सो चेव || ६ ||
अर्थ - जो ज्ञायकभाव ( आत्मा ) है वह अप्रमत्त ( मुक्त ) भी नहीं और प्रमत्त ( संसारी ) भी नहीं है । इसप्रकार इसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञाता ( श्रात्मा ) है, वह तो वही है ।
[ १३३१
जीवे कम्मं बद्ध ं पुट्ठ ं चेदि ववहारणयभणिदं । सुद्धणयस्स दु जीवे अबद्धपुट्ठ हवइ कम्मं ॥ १४१ ॥
अर्थ-जीव में अर्थात् जीव के प्रदेशों के साथ कर्म बँधा हुआ है और स्पर्शित है ऐसा व्यवहारनय का कथन है और जीव में कर्म श्रबद्ध और अस्पर्शित हैं ऐसा निश्चयनय का कथन है ।
इन मोक्ष का प्रश्न ही कहा भी है
'एकस्य बद्धो न तथा परस्य' [ कलश ७० ]
अर्थात् - जीव कर्म से बन्धा है ऐसा व्यवहारनय का पक्ष है और नहीं बँधा हुआ है ऐसा निश्चयनय पक्ष है।
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जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुट्ठे अणण्णयं णियदं । अविसेसमसंजुत्तं तं सुद्धणयं वियाणाहि ॥ १४ ॥
अर्थ- जो नय आत्मा को बंधरहित, पर के स्पर्श से रहित, अन्यत्वरहित, अचल, विशेषरहित, अन्य के संयोग से रहित ऐसे पाँच भावरूप से देखता है वह निश्चयनय है ।
वाक्यों से स्पष्ट हो जाता है कि निश्चयनय की दृष्टि में श्रात्मा अबद्ध है । जो अबद्ध है उसके उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि बंध से छूटने का नाम मोक्ष है, अर्थात् मोक्ष तो बन्धपूर्वक है ।
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