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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ १३३३ __ अर्थ-व्यवहारनय से श्री केवली भगवान सर्वज्ञेयों को देखते और जानते हैं, किन्तु निश्चयनय से केवलज्ञानी मात्र आत्मा अर्थात् अपने आप को देखते जानते हैं।
सुणु ववहारणयस्स य वत्तन्वं से समासेण ॥३६०॥ जह परदव्वं सेडिदि हु सेडिया अप्पणो सहावेण ।
तह परदव्वं जाणइ णाया वि सयेण भावेण ॥३६१॥ [समयसार] अर्थ-व्यवहारनय के वचन संक्षेप से कहे जाते हैं उनको सुनो। जैसे खड़िया अपने स्वभाव से भीतग्रादि पर द्रव्य को सफेद करती है उसीप्रकार प्रात्मा भी परद्रव्य को अपने स्वभाव से जानता है।
श्री जयसेनाचार्य भी टीका में लिखते है
'यथैव च श्वेतमृत्तिका कुडचं श्वेतं करोतीति व्यवह्रियते तथैव च ज्ञानं ज्ञेयं वस्तु जानात्येवं व्यवहारोऽस्तीति । किच यदि व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति तहि निश्चयेन सर्वज्ञो न भवति । सौगतोऽपि ब्र ते व्यवहारेण सर्वज्ञः तस्य किमिति दूषणं दीयते भवद्भिरिति ? तत्र परिहारमाहसौगतादिमते यथा निश्चयापेक्षया व्यवहारो मृषा, तथा व्यवहाररूपेण व्यवहारो न सत्य इति, जनमते पुनर्व्यवहारनयो यद्यपि निश्चयापेक्षया मृषा तथापि व्यवहाररूपेण सत्य इति । एवमात्मा व्यवहारेण परद्रव्यं जानाति पश्यति निश्चयेन पुनः स्वद्रव्यमेवेति ।'
अर्थ-जिसप्रकार श्वेतमृतिका खड़िया भीत आदि को श्वेत करती है ऐसा व्यवहार होता है उसीप्रकार ज्ञान-ज्ञेय वस्तुओं को जानता है ऐसा व्यवहार होता है ।
प्रश्न-यदि व्यवहारनय से परद्रव्य को जानता है तो निश्चयनय से सर्वज्ञ का अभाव है। बौद्ध भी व्यवहारनय से सर्वज्ञ कहते हैं । तो फिर आप उनको क्यों दूषण देते हैं ?
उत्तर-बौद्ध जिसप्रकार निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार को मृषा ( झूठ ) मानते हैं उसीप्रकार वे व्यवहारनय को व्यवहारदृष्टि से भी सत्य नहीं मानते, किन्तु जैनमत में यद्यपि निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार मृषा है तथापि व्यवहारनय की अपेक्षा सत्य है। इसप्रकार व्यवहारनय से प्रात्मा परद्रव्य को जानता-देखता है निश्चयनय से अपने को ही जानता है ।
अतः व्यवहारनय को हेय मानने से सर्वज्ञता का लोप हो जाता है, मोक्ष और मोक्षमार्ग के अभाव का प्रसंग आ जाता है।
-जं. ग. 2-1-67/VII-VIII/ लक्ष्मीचद जैन मोक्षमार्ग में व्यवहारनय क्या सर्वथा हेय है ? शंका-मोक्षमार्ग में व्यवहारनय क्या सर्वथा हेय है ?
समाधान-श्री अहंत भगवान की दिव्यध्वनि के द्वारा मोक्षमार्ग का उपदेश दिया गया है। वह उपदेश द्रव्याथिक (निश्चय ) नय और पर्यायाथिक ( व्यवहार ) नय के अधीन दिया गया है किसी एक नय के अधीन नहीं दिया गया है । श्री अमृतचन्द्राचार्य पंचास्तिकाय गाथा ४ की टीका में लिखते हैं-'भगवान ने दो नय कहे
१. "हो हि नयो भगवता प्रणीतादम्यार्थिकः पर्यायाथिकम्य । तब न खल्वेकनयायत्तादेखना, किंतु तदुभवायत्ता।'
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