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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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धवल पुस्तक १–'अन्तर्मुख चित्प्रकाश को दर्शन और बहिर्मुख चित्प्रकाश को ज्ञान माना है अतः इन दोनों के एक होने में विरोध आता है।" [ पृ० १४५ ]
यदि ऐसा कहा जाय कि अंतरंग सामान्य और बहिरंग सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शन तथा अन्तबर्बाह्य-विशेष को ग्रहण करनेवाला ज्ञान है तो ऐसा मानने में दो आपत्तियाँ आती हैं। प्रथम तो छद्मस्थ के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के युगपत् होने का प्रसंग आजायगा, क्योंकि सामान्य-विशेषात्मक वस्तु का क्रम के बिना ही ग्रहण होता है। दूसरे यह कि सामान्य को छोड़कर केवल विशेष अर्थक्रिया करने में असमर्थ है, और जो अर्थक्रिया करने में असमर्थ होता है वह अवस्तुरूप पड़ता है, अतएव उसका ग्रहण करनेवाला होने के कारण ज्ञान प्रमाण नहीं हो सकता तथा केवल विशेष का ग्रहण भी तो नहीं हो सकता है, क्योंकि सामान्यरहित अवस्तुरूप केवल विशेष में कर्ता, कर्मरूप व्यवहार नहीं बन सकता है। इसप्रकार केवल विशेष को ग्रहण करनेवाले ज्ञान में प्रमाणता सिद्ध नहीं होने से, केवल सामान्य को ग्रहण करनेवाले दर्शन को प्रमाण नहीं मान सकते हैं। प्रमाण के अभाव में प्रमेय ( पदार्थ ) और प्रमाता ( आत्मा ) आदि सभी का अभाव मानना पड़ेगा, किन्तु उनका अभाव है नहीं, क्योंकि उनका सद्भाव दृष्टिगोचर होता है [ पृ० १४६-१४७ ] ।
अतः सामान्य-विशेषात्मक बाह्यपदार्थ को ग्रहण करनेवाला ज्ञान है और सामान्य विशेषात्मक आत्मरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन है, यह सिद्ध हो जाता है।
"ज सामण्णं गहणं तं दंसणं" इस परमागमवाक्य के साथ भी विरोध नहीं आता है, क्योंकि आत्मा संपूर्ण बाह्य पदार्थों में साधारणरूप से पाया जाता है, इसलिये उक्त परमागम वचन में सामान्य संज्ञा को प्राप्त आत्मा का ही सामान्यपद से ग्रहण किया गया है। [ पृ० १४७ ]
अंतरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग का प्रतिबन्धक दर्शनावरणकर्म है और बहिरंग पदार्थ को विषय करने वाले उपयोग का प्रतिबन्धक ज्ञानावरणकर्म है [ पृ० ३८१ ]। इसीप्रकार धवल पु० ६, ७, ११, १३ में तथा जयधवल पु. १ में कथन है, वहाँ से देख लेना चाहिये ।
यह कथन सिद्धान्तमय अनुसार है, किन्तु तर्क शास्त्र में, अन्यमत वालों को समझाने की मुख्यता होने से, ज्ञान को स्व-पर-प्रकाशक कहा गया है। जैसे परीक्षामुख के प्रथमसूत्र "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं" में कहा है कि स्व और अपूर्वार्थ ( पर ) का निश्चय करना ज्ञान है और वही प्रमाण है।
इसप्रकार भिन्न-भिन्न दृष्टियों से ज्ञान को पर-प्रकाशक तथा स्व-पर-प्रकाशक कहा है।
-जं. ग. 5-8-65/IX/ शान्तिलाल
'कर्मकृत भाव' से अभिप्राय
शंका-धवल पु० १३ में आकार का लक्षण 'कर्मकृत माव' कहा है, किन्तु केवली का ज्ञान कर्मकृत भाव नहीं है क्योंकि वहाँ पर तो ज्ञानावरण आदि चारों घातियाकर्मों का क्षय हो चुका है । आकार का यथार्थ लक्षण क्या है ? केवलज्ञान साकार है या नहीं?
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