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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
सम्यक्मतिज्ञान और सम्यक् श्रुतज्ञान समनस्क जीवों के ही होता है अमनस्क जीवों के क्षायोपशमिक सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता । अतः मन का विषय सम्यक्ध तज्ञान है । कहा भी है
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"श्र तमनद्रियस्य" । [ २।२१, तत्वार्थ सूत्र ]
अर्थ - मन का विषय श्रुतज्ञान के विषयभूत पदार्थ है ।
अमनस्क जीवों में मन के बिना भी कुश्रुतज्ञान की उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं है। धवल पु० १ पृ० ३६१ पर कहा भी है ।
"मनरहित जीवों के श्रुतज्ञान कैसे संभव है ? ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि मन के बिना वनस्पतिकायिकजीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है, इसलिये मनसहित जीवों के ही श्रुतज्ञान मानने में उनसे अनेकान्त दोष आता है ।"
ज्ञानोपयोग के अभाव में भी ज्ञानपर्याय का अस्तित्व
समय में
शंका - जिससमय संसारी जीवों के दर्शनोपयोग रहता है तब ज्ञानोपयोग नहीं होता तो उस विवक्षित ज्ञानगुण की कौनसी पर्याय विद्यमान रहती है, क्योंकि यदि ज्ञानगुण है तो वह किसी न किसी पर्याय में रहना चाहिये ?
समाधान - छद्मस्थ जीवों के ज्ञानगुण की दो अवस्थाएँ होती हैं:- १. लब्धि २ उपयोग । ' लब्ध्युपयोगों भावेन्द्रियम् ।' मो. शा. अ. २ सू. १८ । ज्ञानावरण के क्षयोपशम को लब्धि कहते हैं । लब्धि के निमित्त से होने वाले परिणाम को उपयोग कहते हैं ( सर्वार्थसिद्धि ) । अतः छद्मस्थ के जिससमय दर्शनोपयोग होता है उससमय ज्ञानलब्धिरूप रहता है, क्योंकि आवरण कर्मोदय के कारण दोनों उपयोग दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एक साथ नहीं हो सकते, क्रम से होते हैं । कहा भी है
- जं. ग. 8 -8-68 / VI/ रो. ला. मित्तल
अर्थ - छद्मस्थों के दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है क्योंकि उनके केवलज्ञानी के वे दोनों ही उपयोग एकसाथ होते हैं ।
"दंसणपुख्वं णाणं, छदुमत्थाणं ण दुष्णि उवओगा ।
जुगवं जह्मा केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि ॥ ४४ ॥ ( बृहद्रव्यसंग्रह )
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दोनों उपयोग एकसाथ नहीं होते । किन्तु
- जै. ग. 26-9-63 / IX / ट. ला. जैन, मेरठ
ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं है, परप्रकाशक है
शंका- ज्ञान स्व-प्रकाशक है या पर प्रकाशक ? यदि पर प्रकाशक है तो कैसे ?
समाधान — श्री वीरसेन स्वामी के अभिप्रायानुसार ज्ञान स्व-प्रकाशक नहीं है, किन्तु पर- प्रकाशक है और दर्शन स्व-प्रकाशक है । इसका स्पष्ट उल्लेख भी धवल और जयधवल ग्रंथों में अनेक स्थलों पर पाया जाता है । उनमें से कुछ उद्धरण यहाँ पर दिये जाते हैं
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