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[पं• रतनचन्द जैन मुख्तार।
समाधान-श्री धवल पु० १३ पृ. २०७ पर ज्ञान को साकारोपयोग और दर्शन को प्राकारोपयोग कहा है वहाँ पर आकार का लक्षण 'कम्म-कत्तार-भावो आगारों' कहा है अर्थात् 'कर्म-कृत भाव का नाम आकार है'। धवल पुस्तक ११ पृ० ३३३ में भी 'आगारोणाम कम्मकत्तारभावो।' अर्थात् 'आकार का प्रथं कर्म-कर्तृत्वभाव है।'
शंकाकार ने उपयुक्त वाक्यों में प्रयोग किये गये 'कर्म' शब्द का यथार्थ अर्थ नहीं समझा। यहाँ पर 'कर्म' का अर्थ ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म नहीं है, किन्तु प्रमाण ( ज्ञान ) से पृथक्भूत-पदार्थ जो ज्ञान का विषय होता है उस पदार्थ को कर्म कहा है। उस पदार्थ के द्वारा किया हुप्रा जो भाव ( पदार्थ के निमित्त से उत्पन्न होने वाला ज्ञेयाकार ) है, वह आकार है । उस आकार के साथ जो उपयोग पाया जाता है, वह साकारोपयोग अर्थात् ज्ञान है। कहा भी है
"पमाणवो पुधभूदं कम्ममायारो" जयधवल पु. १ पृ० ३३१ ।
"आयारो कम्मकारयं सयलत्यसस्थादो पुध काऊण बुद्धिगोयरमुवणीयं, तेण आयारेण सह वट्टमाणं सायारं। गाणादोपुधभूदकम्मुवलंभादो।" जयधवल पु० १ पृ० ३३८ ।
अर्थ-प्रमाण से पृथग्भूत कर्म को आकार कहते हैं, अर्थात प्रमाण में अपने से भिन्न बहिर्भूत जो विषय प्रतिभासमान होता है, उसे आकार कहते हैं अथवा बुद्धि ( ज्ञान ) के विषयभाव को प्राप्त हुआ कर्मकारक प्राकार कहलाता है । वहाँ पर ज्ञान से पृथग्भूत कर्म पाया जाता है।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि ज्ञान का परिणमन ज्ञेयाधीन है इसीलिये ज्ञान को साकारोपयोग कहा है। किन्त ज्ञेयों का परिणमन ज्ञान के आधीन नहीं है। ज्ञेय पदार्थों का परिणमन अपने-अपने अंतरग और बहिरंग कारणों के प्राधीन है।
दर्शनोपयोग का विषय बाह्य पदार्थ नहीं है इसीलिये दर्शन को अनाकारोपयोग कहा है ।
इस प्रकृत में 'कर्म' का अर्थ ज्ञान से पृथग्भूत बाह्यपदार्थ ग्रहण करना चाहिये, न कि ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म ।
-जं. ग. 5-8-65/IX/ शान्तिलाल चक्षु आदि इन्द्रियों को अन्तरंग में प्रवृत्ति नहीं होती शंका-धवल पु० ७ पृ० १०१ पर समाधान नं० २ में भाषा में लिखा है कि यथार्थ में तो चाइन्द्रिय को अन्तरंग में ही प्रवृत्ति होती है।" क्या यह ठीक है?
समाधान-उक्त अभिप्रायवाले शब्द प्राकृत टीका, अर्थात् धवला में नहीं है। अनुवादक ने अपनी मोर से लिख दिये हैं; क्योंकि हिन्दी भाषा-पंक्ति ५ में 'अन्तरंग' अर्थात् 'आत्मपदार्थ' किया है। सामान्य का अर्थ वहाँ आत्मपदार्थ किया गया है। संस्कृत में 'जीव' शब्द है । जीव या आत्म-पदार्थ इन्द्रिय का विषय नहीं है।
-पताघार 3-8-77/ ज. ला. जैन, भीण्डर उपयोग जीवों की समस्त इन्द्रियाँ युगपत् व्यापार नहीं कर सकती शंका-समस्त इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में युगपत् प्रवृत्ति हो सकती है या नहीं ?
समाधान-इन्द्रियज्ञान छद्मस्थों के होता है । छद्मस्थों के ज्ञानावरणकर्म का उदय रहता है। मतिज्ञानावरणकर्म के देशघातिस्पर्धकों के उदय के कारण समस्त इन्द्रियों की अपने-अपने विषय में युगपत् प्रवृत्ति नहीं हो
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