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________________ व्यक्तित्व और कृतित्व ] [ ८७५ कालाणु भी पुद्गलपरमाणु के आकाररूप है, क्योंकि दोनों आकाश के एक प्रदेश में स्थिर होकर रहते हैं अतः कालाणु भी गोल है। आकाशद्रव्य भी चौरस समधन प्राकार वाला है। कहा भी है ध्योमामूर्त स्थितं नित्यं चतुरस्रसमं धनम् । भावावगाहहेतुश्च नंतानंतप्रदेशकम् ॥३।२४ आचारसार अर्थ-आकाशद्रव्य अमूर्त है, क्रियारहित है, नित्य है, चतुरन-सम-धनाकार है, अनन्तप्रदेशी है, अवगाह का कारण है। इसप्रकार पुद्गलपरमाणु, कालाणु, सिद्धजीव और आकाशद्रव्य के आकार का कथन आर्षग्रन्थों में पाया जाता है। -जं. ग. 29-8-68/VI/ रोशनलाल द्रव्य (१) एक द्रव्य का प्रभाव अन्य द्रव्य पर अवश्य पड़ता है। (२) जिनसेन की वर्ण व्यवस्था सर्वागम सम्मत है। शंका-यह तो सर्वमाननीय है कि एक द्रव्य-गुण-पर्याय का दूसरे द्रव्य-गुण व पर्याय पर कोई प्रभाव या असर नहीं पड़ता, क्योंकि प्रत्येकद्रव्य तथा उसके गुण व पर्याय स्वतन्त्र हैं। एक के कारण दूसरे को लाभ या हानि नहीं पहुँचती। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र है उसकी मुक्ति में पौगलिक शरीर बाधा उत्पन्न नहीं कर सकता। इसलिये शूद्रमुक्ति का निषेध नहीं किया जा सकता। महापुराण के कर्ता श्री जिनसे स्वामी ने मनुस्मृति का अनुसरण करके जैनधर्म को तीन वर्ण का धर्म बना दिया है। इसीलिये श्री पं० कूलचन्दजी सिद्धान्तशास्त्री को लिखना पड़ा कि आचार्य जिनसेन ने जैनधर्म की आध्यात्मिकता को गौण करके उसे तीन वर्ण का सामाजिक धर्म या कुलधर्म बनाने का भरपूर प्रयत्न किया है। शूद्र-मुक्ति के मानने से दिगम्बर जैनधर्म में क्या बाधा आती है ? समाधान-दिगम्बरेतर समाज में तो ऐसा माना गया है कि एक द्रव्य-गुण-पर्याय का किसी अपेक्षा से भी कोई प्रभाव या असर दूसरे द्रव्य, गुण-पर्यायपर नहीं पड़ता। इसलिये दिगम्बरेतर जैनसमाज में स्त्रीमुक्ति आदि मानी गई है। दिगम्बरजैनाचार्यों ने ऐसा स्वीकार नहीं किया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य तथा टीकाकार श्री अमृतचन्द्राचार्य ने स्पष्टरूप से एक-द्रव्य-गुण व पर्याय का दूसरे द्रश्य-गुण व पर्याय पर प्रभाव व प्रसर स्वीकार किया है। रागो पसत्थभूदो वविसेसेण फलदि विवरीदं । गाणाभूमिगदाणिह बीजाणिव सस्सकालम्हि ॥२५॥ प्रवचनसार । अर्थ-जैसे जगत में नानाप्रकार की भूमियों के कारण बीज के फलकाल में फल की विपरीतता ( विभिनता ) देखी जाती है उसीप्रकार प्रशस्तभूतराग वस्तु भेद से विपरीततया ( विभिन्नतया ) फलता है। टोका-यफकेषामपि बोजाना भूमिवपरीत्यनिष्पत्तिवपरीत्यं तथैकस्यपि प्रशस्तरागलक्षणस्य शुभोपयोगस्य पात्रवपरीत्यारफलपरीत्यं कारणविशेषात्कार्यविशेषस्यावश्यं मावित्वात । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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