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________________ ८७६ । [पं० रतनचन्द जैन मुख्तार । अर्थ-जैसे एक ही प्रकार का बीज होने पर भी भूमि की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है ( अच्छी भूमि में उसी बीज का अच्छा फल उत्पन्न होता है और खराब भूमि में खराब हो जाता है या उत्पन्न ही नहीं होता।) उसी प्रकार प्रशस्तरागसहित शुभोपयोग वही का वही होता है फिर भी पात्र की विपरीतता से फल की विपरीतता होती है, क्योंकि कारणभेद से कार्यभेद अवश्यंभावी है। इस गाथा में श्री कुन्दकुन्दाचार्य तथा टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्य ने यह स्पष्ट बतलाया है कि बीज के फल पर भूमि का प्रभाव व असर पड़ता है। फिर यह कहना कि 'दूसरे का असर नहीं पड़ता है' ठीक नहीं है। संसार में कुसंगति से बचने का उपदेश इसीलिये दिया जाता है कि संगति का प्रभाव पड़ता है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने इसी बात को निम्न गाथा में कहा है। तम्हासमं गुणादो समणो समणं गणेहि व अहियं । अधिवसदु तम्हि णिच्चं इच्छवि जदि दुक्खपरिमोक्खं ॥२१०॥ प्रवचनसार अर्थात्-लौकिक जनों की संगति से संयत भी असंयत होता है इसलिये यदि साधु दुःख से परिमुक्त होना चाहता है तो समान गुणवाले श्रमण के अथवा अधिक गुणवाले श्रमण के संग में सदा निवास करे। टीका-प्रात्मा परिणाम स्वभाववाला है इसलिये लौकिकसंगति से विकार अवश्य आजाता है और संयत भी असंयत हो जाता है, जिसप्रकार अग्नि की संगति से जल विकारी अर्थात् गर्म हो जाता है। इसलिये दुःखों से मक्ति चाहनेवाले श्रमण को समानगुणवाले श्रमण के साथ अथवा अधिक गुणवाले श्रमण के साथ निवास करना चाहिये, जिससे उसके गुणों की रक्षा अथवा गुणों में वृद्धि होती है। जैसे शीतल जल यदि शीतल घर के कोने में रखा हआ है तो वह ज्यों का त्यों बना रहेगा। यदि वह जल अधिक शीतल स्थान पर या बरफ पर रखा हुआ है तो अधिक शीतल हो जायगा। जब दूसरे की संगति का प्रभाव आत्मा पर पड़ता है तो शरीर का प्रभाव प्रात्मा पर अवश्य पड़ेगा, क्योंकि शरीर व आत्मा का परस्पर बन्धानबद्ध से सम्बन्ध है। शारीरिक संहननादि शक्ति के अभाव में मोक्ष नहीं होता। इसी बात को श्री जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय गाथा १७० व १७१ टीका में कहा गया है "संहननादिशक्त्यभावाच्छुद्धात्मस्वरूपे स्थातुमशक्यत्वाद्वर्तमान-भवे पुण्यबंध एव भवान्तरे तु परमात्मभावनास्थिरत्वे सति नियमेन मोक्षो भवति ।" अर्थ-संहननादि शक्ति के प्रभाव से शुद्धात्मस्वरूप में ठहरने में असमर्थ होने के वर्तमान भव में पूण्यबंध होता है, अन्य भव में परमात्मभावना स्थिर होने पर नियम से मोक्ष जाता है। मुनि दीक्षा के योग्य किसप्रकार का शरीर कुल वर्ण वय ( अवस्था व आयु ) होनी चाहिये । उसका कथन श्री १०८ कुन्दकुन्दादि आचार्य निम्नप्रकार कहते हैं वरणेसु तीसु एक्को कल्लाणंगो तवोसहो वयसा । सुमुहो कुछारहिदो लिंगग्गहरणे हववि जोग्गो ॥ [ प्रवचनसार ] अर्थ-ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य इन तीनवर्णों में से कोई एक वर्णवाला हो, आरोग्य हो, तप की क्षमता रखनेवाला हो, न अतिवृद्ध वयवाला हो और न प्रति बाल वयवाला हो, अंतरंग और बहिरंग निर्विकार सुमुख हो. दुराचारादि अपवाद रहित हो, ऐसा गुण विशिष्ट पुरुष जिनदीक्षा ग्रहण करने के योग्य होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012010
Book TitleRatanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
PublisherShivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
Publication Year1989
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size13 MB
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