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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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"या प्रकार इस अनादि संसार विष घाति-प्रघाति कर्मनिका उदय के अनुसार आत्मा के अवस्था हो है सो हे भव्य ! अपने अन्तरंगविष विचारि देखि ऐसे ही है कि नाहीं।" (पृ. ६४)
"दोऊ विपरीत श्रद्धानते रहित भये सत्यश्रद्धान होय, तब ऐसा मान-ए रागादिकभाव प्रात्मा का स्वभाव तो नाहीं है कर्म के निमित्त आत्मा के अस्तित्व विष विभावपर्याय निपजे हैं। निमित्त मिटै इनका नाश होते स्वभावभाव रह जाय है । तातै इनिके नाश का उद्यम करना।" (पृ० २८९)
"जात रागादिकभाव आत्मा का स्वभावभाव तो है नाहीं। उपाधिकभाव हैं, पर निमित्ततै भये हैं, सो निमित्त मोहकम का उदय है । ताका अभाव भये सर्वरागादिक विलय होय जाय, तब पाकुलता का नाश भये दुख दूरि होय, सुख की प्राप्ति होय ।" (पृ० ४५१ ) मोक्षमार्गप्रकाशक में तो सर्वत्र कर्म के उदय ते विकारभाव मानना सत्य श्रद्धान कहा है।
-जं. ग. 28-5-70/VII/ रो. ला. मित्तल "रागादिमाग मात्र जीव की योग्यता से उत्पन्न होते हैं"; ऐसा एकान्त कथन अनाहत है
शंका-समयसार में यह लिखा है कि आत्मा कर्म नहीं करता। भावकर्म भी पौगलिक हैं। यह समझ में नहीं आता कि पुद्गल बेजान होते हुए बिना आत्मा के कर्म कैसे कर सकता है ? और भावकर्म अर्थात् रागद्वेष तो आत्मा में होते हैं पुद्गल में नहीं होते । पौद्गलिक कैसे ?
___ समाधान–समयसार गाथा ५ में भी कुन्दकुन्दाचार्य ने यह कहा है कि 'मैं एकत्वविभक्त आत्मा को दिखाऊंगा' इस प्रतिज्ञा के फलस्वरूप गाथा ६८ तक एकत्व विभक्त ( शुद्ध ) आत्मा का कथन है। शुद्धात्मा के कथन में यह कहा गया है कि आत्मा कर्म का कर्ता नहीं है और रागद्वेषरूप भावकर्म भी आत्मा के नहीं हैं। यह कथन शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से है। आत्मा भी एक वस्तु है और प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक ( अनेकान्त ) होती है। प्रत्येक धर्म किसी न किसी अपेक्षा को लिये हुए है। जैसे स्वचतुष्टय की अपेक्षा अस्ति, परचतु अपेक्षा नास्ति । अनन्त धर्मों का एक साथ कथन करना असंभव है। एक समय में एक ही धर्म का कथन अपनी अपेक्षा से हो सकता है। उस समय अन्य धर्म व अन्य अपेक्षा गौण रहती हैं । किन्तु उनका निषेध नहीं होता अतः जिससमय शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से यह कहा जाता है कि 'आत्मा कम नहीं कर्ता और रागद्वेष आदि भावकर्म पौदगलीक हैं उससमय अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा यह कथन 'आत्मा कर्म कर्ता है, रागद्वेष आदि भावकर्म आत्मा के' गौण हैं। अथवा उस समय यह कथन भी गौरण है कि 'रागद्वेष आदि न केवल आत्मा के हैं और न केवल पौद्गलीक हैं किन्तु दोनों के संबंध से उत्पन्न हुए हैं। जैसे कि पुत्र न केवल पिता का है, न केवल माता का है, किन्तु मातापिता के संयोग से उत्पन्न हुआ है।" श्री वृहद् द्रव्यसंग्रह की संस्कृत टीका में कहा भी है-“यहाँ शिष्य पूछता है-रागद्वेषादि भावकों से उत्पन्न हुए हैं या जीव से ? आचार्य उत्तर देते हैं-स्त्री और पुरुष इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए पुत्र के समान तथा चूना तथा हल्दी इन दोनों के मेल से उत्पन्न हुए लाल रंग की तरह, यह रागद्वेष आदि कषायभाव जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। नय की विवक्षा अनुसारविवक्षित एकदेश शद्धनिश्चयनय से तो ये रागद्वषादि कषाय कर्म से उत्पन्न हए कहलाते हैं। अशद्धनिश्चयनय से जीवजनित कहलाते हैं । साक्षात् शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से ये उत्पन्न ही नहीं होते। जैसे स्त्री व पुरुष के संयोग बिना पत्र की उत्पत्ति नहीं होती, तथा चूना व हल्दी के संयोग बिना लाल रंग उत्पन्न नहीं होता इसीप्रकार जीव तथा कर्म इन दोनों के संयोग बिना रागद्वेषादि की उत्पत्ति ही नहीं होती।
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