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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
"जैसे पुत्र यद्यपि पिता-माता के संयोग से उत्पन्न हुआ है फिर भी पितामह ( बाबा ) के घर पर वह पुत्र पिता का कहलाता है, किन्तु नाना के घर पर वह ही पुत्र माता का कहलाने लगता है । इसीप्रकार रागद्वेष कषाय. भाव यद्यपि जीव और पूगल के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। फिर भी अशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा प्रशद्ध-उपादान से चेतन अर्थात जीव संबद्ध कहलाते हैं, किन्तु शुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा शुद्धउपादान से अचेतन पौद्गलिक हैं । वास्तव में एकान्त से रागद्वेष न जीवस्वरूप हैं और न पुद्गलस्वरूप हैं, किन्तु चूना हल्दी के संयोग के समान, जीव पुद्गल के संयोगरूप हैं । वस्तुतः सूक्ष्मशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से यह मिथ्यात्व रागादिभाव असल में कुछ भी नहीं हैं, प्रज्ञान से उत्पन्न हुए कल्पितभाव हैं। इस कथन से यह कहा गया कि जो कोई एकांत से ऐसा कहते हैं कि यह रागादिभाव जीव संबंधी हैं अथवा कोई कहते हैं कि ये पुद्गलसम्बन्धी हैं इन दोनों के वचन मिथ्या हैं, क्योंकि पूर्व में कहे हुए स्त्री-पुरुष के दृष्टान्त के समान जीव और पुद्गल के संयोग से उत्पन्न हुए हैं। सूक्ष्मशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा से इन रागादिभावों का अस्तित्व ही नहीं है।" (समयसार गाथा १०९-११२ तात्पर्यवृत्ति टीका)। इस उपरोक्त आगमप्रमाण से यह भी सिद्ध होगया कि जो यह कहते हैं कि 'रागद्वेषभाव मात्र जीव की योग्यता से उत्पन्न होते हैं कर्मोदय के निमित्त से उत्पन्न नहीं होता' उनका ऐसा कथन भी मिथ्या है। नयविवक्षा व अनेकान्तदृष्टि से रागादिभाव के विषय में यथार्थ समझ लेने से ही आत्मा का कल्याण है।
-ज. सं. 9-10-58/ / इ. से. जैन, मुरादाबाद रागादिभाव जीव और पुद्गल दोनों के सम्बन्ध से उत्पन्न हुए हैं शंका-मिथ्यात्व, राग-द्वेष आदि २९ भाव, जिनका कथन समयसार गाथा ५०-५५ में है, उन भावों का निश्चयनय से कौन कर्ता है और व्यवहारनय से कौन कर्ता है ?
समाधान-सर्वप्रथम व्यवहारनय और निश्चयनय का लक्षण विचारना है। व्यवहारनय पर्यायाश्रित होने से दूसरे के भाव को दूसरे का कहता है, जैसे लालरंग से रंगे हुए सफेद वस्त्र को लाल कहना । निश्चयनय द्रव्याश्रित होने से दूसरे के भाव को किंचितमात्र भी दूसरे का नहीं कहता; जैसे लालरंग से रगे हुए सफेद वस्त्र को सफेद कहना। व्यवहारनय व निश्चयनय की इस व्याख्या अनुसार, मिथ्यात्व-रागद्वेषादि २९ भाव व्यवहारनय से जीव के हैं। क्योंकि अनादिकाल से कमबद्ध जीव व पुदगल के संयोगवश ये मिथ्यात्व रागद्वषादि औपाधिकभाव होते हैं। निश्चयनय की अपेक्षा से मिथ्यात्व, रागद्वेष प्रादि २९ औपाधिकभाव जीव के नहीं हैं, क्योंकि ये औपाधिकभाव जीव के स्वाभाविकभाव नहीं, किन्तु द्रव्यकर्म जनित हैं। निश्चयनय दूसरे के भावों को दूसरे के किंचित्मात्र भी नहीं कहता; अतः निश्चयनय की दृष्टि में ये प्रोपाधिकभाव जीव के कैसे हो सकते हैं, क्योंकि ये रागादि औपाधिकभाव पुद्गलकर्म का अनुकरण करनेवाले हैं। ये रागादिभाव पोद्गलिक मोहकर्मकी प्रकृति के उदयपूर्वक होने से अचेतन हैं, क्योंकि कारण जैसा ही कार्य होता है, जैसे जौ से जी ही उत्पन्न होता है। ( समयसार गाथा ५६-६८ तक आत्मख्याति टीका ) कलश नं. ४४ में श्री १०८ अमृतचन्द्राचार्य ने भी इसप्रकार कहा है-'रागादि पुद्गलविकारविरुद्धशुद्धचैतन्यधातुमयमूर्ति रयं च जीवः।' अर्थ-यह जीव तो रागावि पुद्गल विकारों से विलक्षण, शुद्धचैतन्य धातुमयमूर्ति है । पंडितवर ने भी कहा है
'रागादि विकार पुद्गल के, इनमें नहीं चैतन्य निशानि ।'
निश्चय से मोह, रागद्वेषादि कर्म का परिणाम होने से पुद्गल होने के कारण इन रागद्वेष प्रादि का पुद्गल के साथ व्याप्यव्यापक संबंध है, जैसे घड़े और मिट्टी का व्याप्यव्यापकभाव है । व्याप्यध्यापकभाव में कर्ताकर्म
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