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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : यदि ऐसा न माना जाय तो द्रव्य-अप्रतिक्रमण और द्रव्यमप्रत्याख्यान इन दोनों के कर्तृत्व के निमिसपने का उपदेश व्यर्थ हो जायगा । कर्तृत्व के निमित्तपने का उपदेश व्यर्थ होने से एक आत्मा के ही रागादिक भाव के निमित्तपने की प्राप्ति हो जायगी, जिससे आत्मा को रागादि के नित्य कर्तृत्व का प्रसंग आजायगा। आत्मा को नित्य कर्तृत्व का प्रसंग आ जाने से मोक्ष का अभाव सिद्ध होगा, इसलिये आत्मा के रागादिभावों का निमित्त परद्रव्य ही है। रागादि भावों का निमित्त पर द्रव्य सिद्ध हो जाने पर आत्मा रागादि भावों का अकारक सिद्ध हो जाता है।
___ समयसार के उपयुक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अज्ञानता व रागादि परद्रव्यों के निमित्त से ही उत्पन्न होते हैं।
-प्न. ग. 28-5-70/VII/ रो. ला. मित्तल कर्म के उदय से विकार भाव मानना सत्य श्रद्धान है शंका-बीरसेवामंदिर सस्तीग्रंथमाला से प्रकाशित हिन्दी आवृत्ति मोक्षमार्ग प्रकाशक पृ० १४८ पर लिखा है कि कर्मके उदय से जीव को विकार होता है ऐसी मान्यता भ्रम मूलक है । क्या यह कथन सत्य है ? क्या कर्मोदय के बिना भी जीव में विकार हो सकता है ?
समाधान-वीर सेवा मंदिर सस्ती ग्रन्थमाला से प्रकाशित मोक्षमार्ग प्रकाशक में तो कथन इसप्रकार का पाया जाता है
"बहुरि सो कर्म ज्ञानावरणादि भेदनिकरि आठ प्रकार है तहां च्यारि घातिया कर्मनिके निमित्तत्रौं तो जीव के स्वभाव दर्शन ज्ञान तिनिको व्यक्तता नहीं हो है तिनि कर्मनिका क्षयोपशम के अनुसार किंचित् ज्ञान दर्शन की व्यक्तता रहै है। बहुरि मोहनीय करि जीव के स्वभाव नाहीं ऐसे मिथ्याश्रद्धान व क्रोध, मान, माया, लोभादिककषाय तिनिकी व्यक्तता हो है। बहरि अंतरायकरि जीव का स्वभाव दीक्षा लेने की समर्थतारूप वीर्य ताकी व्यक्तता न हो है ताका क्षयोपशम के अनुसार किंचित् शक्ति हो है। ऐसे घातियाकर्मनिके निमित्त” जीव के स्वभाव का घात अनादि ही ते भया है।" (पृ० ३५)
__“जीव विर्ष अनादिहीत ऐसी पाइए है जो कर्म का निमित्त न होइ तो केवलज्ञान आदि अपने स्वभावरूप प्रवत, परंतु अनादिहीत कर्मका संबंध पाइए हैं। तातै तिस शक्ति का व्यक्तपना न भया।" (पृ० ३६ )
"बहुरि मोहनीयकर्मकरि जीव के अयथार्थरूपतो मिथ्यात्वभाव हो है वा क्रोध, मान, माया, लोभादिककषाय होय है। ते यद्यपि जीव के अस्तित्वमय हैं जीव ते जुदे नाहीं। जीव ही इनका कर्ता है जीव के परिणमनरूप ही ये कार्य हैं तथापि इनका होना मोहकर्म के निमित्तते ही है कर्म निमित्तकरि भये इनका प्रभाव ही है ताते ए जीव के निजस्वभाव नाहीं उपाधिक भाव है।" (पृ. ३८ )
"बहरि इस जीव के मोह के उदयत मिथ्यात्व व कषायभाव हो हैं तहां दर्शनमोह के उदयते तो मिथ्यात्वभाव हो है ताकरि यह जीव अन्यथा प्रतीतिरूप अतत्त्वश्रद्धान कर है। जैसे है तैसे तो न मानें है अर जैसे नाहीं है तैसे माने हैं ।" (पृ० ५४ )
"बहुरि चारित्रमोह के उदयतें इस जीव के कषायभाव हो हैं । तब यह देखता जानता संता पर पदार्थनिविर्ष इष्ट अनिष्टपनौ मानि क्रोधादिक कर है।" (पृ० ५५)
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