________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ९७१
रागादयो बंधनिदानमुक्तास्ते शुद्धचिन्मात्रमहोऽतिरिक्ताः ।
आत्मा परो वा किमु तन्निमित्तमिति प्रणुन्नाः पुनरेवमाहुः ।।कलश १७४।। अर्थ:-यहाँ शिष्य कहता है कि रागादिक हैं वे तो बंध के कारण कहे और वे शुद्ध चैतन्यमात्र आत्मस्वभाव से जुदे कहे । प्रश्न यह है कि उन रागादि होने में आत्मा निमित्तकारण है या अन्य कोई दूसरा निमित्तकारण है। श्री कुन्दकुन्वाचार्य इस प्रश्न का निम्न प्रकार उत्तर देते हैं
जह फलिहमणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं। रेगिज्जदि अण्णेहि दु सो रत्तादोहि दम्वेहिं ॥२७८।। एवं णाणी सुद्धो ण सयं परिणमइ रायमाईहिं ।
राइज्जवि अण्णेहि दु सो रागावीहिं दोसेहिं ॥२७९।। अर्थ-जैसे स्फटिकमणि आप शुद्धस्वभावी है वह परद्रव्य के निमित्त के बिना अपने आप ललाईरूप नहीं परिणमती, किन्तु अन्य लालादिद्रव्यों से ललाई आदिरूप परिणमाई जाती है । इसीप्रकार ज्ञानी अर्थात् जीव शुद्धस्वभावी है वह स्वयं अपने आप परद्रव्य के निमित्त बिना रागादिभावरूप नहीं परिणमता, किन्तु अन्य रागादिरूप. द्रव्यकों के द्वारा रागादिरूप किया जाता है। श्री अमृतचन्द्राचार्य गाथा २७९ की टीका में कहते हैं
"केवलः किलात्मा परिणामस्वभावरवे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वा भावात रागादिभिः स्वयं न परिणमते परद्रव्येणैव स्वयं रागाविभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः परिणम्यते, इति तावद्वस्तु स्वभावः ।"
अर्थ-अकेला आत्मा परिणमन स्वभाव रूप होने पर भी अपने शुद्ध-स्वभाव कर रागादि निमित्तपने के अभाव से ग्राप ही रागादि भावों कर नहीं परिणमता, अपने प्रापही रागादि परिणाम का निमित्त नहीं है परन्त जो पर द्रव्य रागादि भाव को प्राप्त हो गया है और आत्मा के रागादि का निमित्तभूत है, उस पर द्रव्य के निमित्त से अपने शुद्ध स्वभाव से च्युत हुप्रा यह आत्मा रागादिभाव रूप परिणमता है, ऐसा वस्तु स्वभाव है।
श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने समयसार गाथा २८३.२८४ की टीका में कहा है
"आत्मा अनात्मनां रागावीनामकारक एव, अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयो द्वं विध्योपदेशान्यथानुपपरे । यः खलु अप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोध्यभाव-भेदेन द्विविधोपदेशः स द्रव्यभावयोनिमित्तनैमित्तिकभावं प्रथयनकर्तृत्व. मात्मनो ज्ञापयति । तत एतत् स्थितं, परद्रव्यं निमित्तं नैमित्तिकं आत्मनो रागादिमावाः। यद्यवं नेष्यते तदा द्रव्याप्रतिक्रमणाप्रत्याख्यानयोः कर्तृत्वनिमित्तत्वोपदेशोऽनर्थक एव स्यात्, तवनर्थकत्वे त्वेकस्यैवात्मनो रागाविभावनिमित्तत्वापत्तौ नित्यकर्तृत्वानुषंगान्मोक्षाभावः प्रसजेच्च । ततः परद्रव्यमेवात्मनो रागाविभावनिमित्तमस्तु । तथा सति तु रागावीनाम कारक एवात्मा।"
____ अर्थ-आत्मा अपने प्राप से अनात्मभूत ( आत्मा के स्वभाव नहीं ) रागादि भावों का अकारक ही है, क्योंकि यदि अपने आप ही रागादि भावों का कारक हो तो अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान इनके द्रव्य और भाव इन दोनों भेदों के उपदेश की अप्राप्ति आती है। निश्चयकर अप्रतिक्रमण और अप्रत्याख्यान ये जो दो प्रकार का उपदेश है, वह उपदेश द्रव्य और भाव के निमित्त-नैमित्तिक भाव को विस्तारता हुआ मात्मा को रागादि के प्रकर्तापने को प्रगट करता है । इसलिए यह सिद्ध हुआ कि परद्रव्य तो निमित्त है और नैमित्तिक आत्मा के रागाविभाव हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org