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[ पं. रतनचन्द जैन मुख्तार
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आत्मा आप से रागादिभावों का अकारक ही है, क्योंकि आप ही कारक हो तो अप्रतिक्रमण और प्रत्यास्वान इनके द्रव्यभाव इन दोनों भेदों के उपदेश की अप्राप्ति आती है जो निश्चयकर अप्रतिक्रमण और प्रप्रत्याख्यान के दो प्रकार का उपदेश है, वह उपदेश द्रव्य और भाव के निमित्तनैमित्तिकभाव को विस्तारता हुआ आत्मा के अकर्तापने को जतलाता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि परद्रव्य तो निमित्त है और नैमित्तिक आत्मा के रागादिकभाव हैं । यदि ऐसा न माना जाय तो द्रव्यअप्रतिक्रमण और द्रव्यअप्रत्याख्यान इन दोनों के कर्तापन के निमित्तपने का उपदेश है वह व्यर्थ ही हो जायगा और उपदेश के अनर्थक होने से एक आत्मा के ही रागादिकभाव के निमित्तपने की प्राप्ति होने पर नित्य कर्तापन का प्रसंग आजायगा। जिससे मोक्ष का अभाव सिद्ध होगा। इसलिये आत्मा के रागादिभावों का निमित्त परद्रव्य ही रहे। ऐसा होने पर आत्मा रागादिभावों का अकारक ही है, यह सिद्ध
हुआ ।
"अण्णणिरावेखो जो परिणामो सो सहावपज्जावो ।" ( नियमसार )
अर्थ - अन्य निरपेक्ष जो परिणाम है वह स्वभावपर्याय है।
यदि रागादिपर्याय को कर्मोदय निरपेक्ष मान लिया जाय तो रागादि को स्वभावपर्याय का प्रसंग आजायगा, किन्तु रागादि विकारीपर्याय है।
"कम्मोपाधिविवज्जिवपज्जाया ते सहावमिदि भणिवा ||१५|| नियमसार कर्मोपाधिरहित जो पर्यायें हैं वे स्वभावपर्यायें हैं ऐसा कहा गया है।
रागादि विकारीपर्याय होने से कर्मोदय सापेक्ष हैं । अतः कर्मोदय और रागादि विकारी परिणामों में निमित्तनैमित्तिकरूप कारण कार्य भाव है।
- जै. ग. 18-1-73/V / व चुन्नीलाल देसाई
जीव में अज्ञानता व रागादि परद्रव्यों के निमित्त से उत्पन्न होते हैं
शंका- यह कहा जाता है कि जीव मात्र अपनी भूल के कारण अपने ज्ञायकस्वभाव से युत होकर रसादिरूप परिणमता है । इस पर प्रश्न यह है कि जब जीव ज्ञायकस्वभाववाला है तो वह भूलता क्यों है ? रागद्वेषपरिगति में मात्र जीव ही कारण है या अन्य भी कोई कारण है ?
समाधान-भूल अर्थात् अज्ञानता व रागद्वेषरूप परिणति जीव के स्वभाव तो नहीं हैं, विकारीभाव है। कर्मोदय के बिना जीव में विकारीभाव नहीं हो सकते। यदि कर्मोदय के बिना भी जीव में विकारीभाव हो जायें तो जीवों में भी कोषादि विकारी भावों का प्रसंग आजावेगा। समयसार में कहा भी है
मुक्त
"अर्थकांतन परिणममानां वा तह उदयागतद्रव्यको धनिमित्तमंतरेणापि भावकोधादिभिः परिणमंतु कस्मादिति चेतु न हि वस्तुशक्तयः परमपेक्षते । तथा च सति मुक्तात्मनामपि द्रव्यकोधादिकमवयनिमित्ताभावेपि भावक्रोधादयः प्राप्नुवंति । न च तदिष्टमागमविरोधातृ"
अर्थ - यदि कोई एकान्तवादी यह कहे कि उदयागत द्रव्यक्रोध के निमित्त बिना भी जीव स्वयं भावक्रोधादिरूप परिणमन कर जाता है, क्योंकि जीव का परिणमन स्वभाव है और वस्तु-शक्तियाँ दूसरे की अपेक्षा नहीं रखती हैं तो श्री आचार्यदेव कहते हैं कि एकान्त से ऐसा मानने पर तो मुक्तात्मा सिद्ध जीवों के भी द्रव्यकमोंदवरूप निमित्त के बिना भावक्रोधादि प्राप्त हो जायेंगे, किन्तु सिद्धों के भाव क्रोध माना नहीं जा सकता, क्योंकि आगम से विरोध आता । समयसार में भी प्रश्न उठाया गया है
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