________________
५२ ]
[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
देखभाल एवं सँभाल सेवा की। उनके इस निस्वार्थ सेवाभाव का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा। ऐसे थे सेवाभावी परोपकारी मुख्तार सा० । ईसरी की यह घटना इस समय ( लिखते वक्त ) प्रत्यक्ष रूप में दिख रही है । आपके लघु भ्राता ब्र० नेमिचन्दजी मुख्तार भी आप जैसी ही प्रवृत्तियों में रत हैं ।
विनयशील :
बात बिल्कुल सही है; देखने और अनुभव में भी आती है कि वृक्ष की फलवती शाखा ही झुकती है और आसमान को चूमने वाला ताड़ का वृक्ष - जो पाषाण स्तम्भ की भाँति ठठाक खड़ा रहता है—उसकी नगण्य तुच्छ छाया में पंछी तक नहीं बैठता । विनय व मार्दवगुण का धारी व्यक्ति सदैव दूसरों का विनय करता है, सहज सरलतावश वह उनकी बात भी मानता है ।
एक बार मुख्तार सा० ने 'जैनमित्र' में प्रकाशनार्थ एक सैद्धान्तिक लेख भेजा । लिपि इतनी अस्तव्यस्त थी कि गम्भीरतापूर्वक पढ़ने पर भी सम्बन्ध बराबर नहीं बैठता था । तब गुजराती भाषाभाषी कम्पोजीटर इस लिपि से कम्पोज भी कैसे कर सकते थे ? फिर भी मैंने मुख्तार सा० का यह लेख कम्पोज करने दे दिया । एक घन्टे बाद कम्पोजीटर लेख वापस ले आया और उसने उसे कम्पोज करने में अपनी असमर्थता प्रकट की ।
तब मैंने मुख्तार सा० को लिपि के विषय में कुछ कड़े शब्दों में एक पत्र लिखा कि खेद है कि एक विद्वान् व्यक्ति लेख तो छपाना चाहता है पर लिपि ठीक नहीं लिखना चाहता । हम अस्पष्ट लिपि वाले लेख 'जैनमित्र' में छापने में असमर्थ हैं ।
छठे दिन मुख्तार सा० का पृथक् से एक पत्र और वही लेख सुवाच्य लिपि में आ गया । पत्र में लिखा 'भाई स्वतन्त्रजी ! आपके पत्र से मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई । क्षमाप्रार्थी हूँ । अब लेख सुन्दर लिपि में भेजा है । छापकर अनुगृहीत करें ।”
था
ऐसे थे हमारे मुख्तार सा० जो छोटों की भी बात स्वीकार कर अपनी विनम्रता व विनयशीलता का
परिचय देते थे ।
स्वर्गीय मुख्तार सा० के प्रति मैं हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ; उन्हें वन्दना करता हूँ और यह भावना करता हूँ कि वे शीघ्र कर्मकलंक विमुक्त होकर शाश्वत शान्ति प्राप्त करें । -
पूज्य गुरुवयं रतनचन्द्र मुख्तारः
** श्री जवाहरलालो जैनः सिद्धान्तशास्त्री, भीण्डरम्
Jain Education International
रतनचन्द्रः ॥ १ ॥
यो धवल कीरत सुतो माता च बरफीति विश्रुता यस्य । गर्ग गोत्र दिवाकरो भूयात्सुखी स सहारनपुरोत्पन्नो नाम्ना रतनचन्द्रः इति प्रसिद्धः 1 अग्रवाल वंशजश्च भूयात्सुखी स रत्नचन्द्रः ॥ २ ॥ बहुकाल पर्यन्तं हि युवत्वकाले सुधीरः स कृतवान् । प्राड्विवाक कर्म ततो विरक्ती भूय संसार कर्मणः ।। ३ ।।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org