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[ पं० रतनचन्द जैन मुख्तार
यदि देशचारित्र ( संयमासंयम ) को चारित्र की प्राथमिक अवस्था कहा जाय तो देशचारित्र चतुर्थं गुणस्थान में होता नहीं है, पाँचवें गुणस्थान में होता है । यदि सकलचारित्र को चारित्र की प्राथमिक अवस्था कहा जाय तो सकल चारित्र छठे आदि गुणस्थानों में होता है, चतुर्थ गुणस्थान में सकलचारित्र नहीं होता है । इसप्रकार ज्ञान का कार्य चारित्रस्पर्शन कहने से चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र सिद्ध नहीं होता है । किन्तु कुदेव आदि की पूजन, सप्त व्यसन सेवन आदि ऐसा आचरण नहीं होता है जिससे सम्यग्दर्शन में बाधा भाजाय । श्री माणिक्यनन्दि आचार्य ने भी 'उपेक्षा संयम' ज्ञान का फल कहा है
"अज्ञाननिवृत्तिनोपादानोपेक्षाश्च फलम् ।”
सूक्ष्मसांपरायचारित्र, यथाख्यातचारित्र भी तो ज्ञान का फल है। यदि 'चारित्रस्पर्शन' का अर्थ चारित्र की प्राथमिक अवस्था किया जायगा तो यथाख्यातचारित्र ज्ञान का कार्य नहीं रहेगा, किन्तु ऐसा है नहीं क्योंकि उपेक्षासंयम भी ज्ञान का कार्य ( फल ) बतलाया गया है । अतः 'चारित्रस्पर्शन' का अर्थ चारित्र को प्राथमिक व्यवस्था करना आर्ष ग्रन्थों का अपलाप करना है ।
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- जे. ग. 24-12-70/ VII-VIII / र. ला. जैन, मेरठ
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