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[पं. रतनचन्द जैन मुख्तार ।
अनन्तानुबन्धीकषाय चारित्रमोहनीयकर्म-प्रकृति होते हुए भी इसके निमित्त से विपरीताभिनिवेशरूप मिथ्यात्व उत्पन्न होता है अतः सम्यग्दर्शन की घातक है । कहा भी है
"मिथ्यात्वं नाम विपरीताभिनिवेशः स च मिथ्यात्वादनन्तानुबन्धिनश्चोत्पद्यते।"
विपरीताभिनिवेश को मिथ्यात्व कहते हैं। वह विपरीताभिनिवेश मिथ्यात्व और अनन्तानबन्धी इनके निमित्त से उत्पन्न होता है।
अनन्तानुबन्धी का चारित्र सम्बन्धी फल मात्र इतना है कि वह चारित्र को आवरण करने वाली अप्रत्याज्यानावरणादि प्रकृतियों के उदय को अनन्त प्रवाहरूप कर देवे और सम्यग्दर्शन सम्बन्धी फल यह है कि अनन्तानउन्धी विपरीताभिनिवेशरूप मिथ्यात्व उत्पन्न करके सम्यग्दर्शन का घात कर देवे।
अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शन का तो घात करती है, किन्तु किसी विवक्षित चारित्र का घात नहीं करती है, मा प्रचलपंथ का स्पष्ट मत है। इसी मत को ध्यान में रखकर थी नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने गोम्मटसार में निम्न प्रकार कहा है
सम्मतदेससयल-चरित्तजहक्खावचरणपरिणामे । घादंति वा कषाया घउसोल असंखलोगमिदा ॥ पढमादिया कसाया सम्मत्तं देससयल चारितं । जहखादं घावंति य गुणणाम होंति सेसावि ॥
इसी बात को अन्य आचार्यों ने भी निम्न गाथानों में कहा है
सम्मत्त-देससंजम संसुद्धीघाइकसाई पढमाई । तेसि तु भवे णासे सड्डाई चउहं उप्पत्ती ।। पढमो दंसणघाई विदिमो वह घाइ देसविरइति । तइओ संजमघाई चउत्थो जहखायघाईया ॥
अनन्तानुबन्धी सम्यग्दर्शन का घात करती है। अप्रत्याख्यानावरण देशसंयम को घातती है। प्रत्याख्यानावरण सकलसंयम को घातती है। संज्वलनकषाय यथाख्यातचारित्र की घातक है।
जो यह मत श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का है वह मत श्री बीरसेन आचार्य का था, क्योंकि श्री वीरसेन आचार्य ने अनन्तानुबन्धी को विवक्षित चारित्र की घातक नहीं कहा है, किन्तु चारित्र की घातक तो मप्रत्यायातावरणादि कषायों को बतलाया है। अनन्तानुबन्धी कषाय तो चारित्र की घातक प्रकृतियों के उदय को अनन्त प्रवाशरूप कर देती है। यदि अनन्तानुबन्धी को किसी भी चारित्र की घातक माना जायगा तो उसके अभाव में
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