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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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समाधान-धवल में अनन्तानुबन्धीकषाय का कथन करते हुए उसका स्वरूप निम्न प्रकार लिखा है
"अनंतभवों को बांधना ही जिनका स्वभाव है, वे अनन्तानुबन्धी कहलाते हैं। जिन अविनष्ट स्वरूपवाले अर्थात् अनादि परम्परागत क्रोध, मान, माया, लोभ के साथ जीव अनंतभव में परिभ्रमण करता है, उन क्रोध, मान, माया, लोभ कषायों की अनंतानुबंधी संज्ञा है। इस पर शंका की गई-अनंतानुबंधी क्रोधादि कषायों का उदयकाल अंतर्मुहूर्त मात्र ही है और स्थिति चालीस कोड़ा-कोड़ी सागरोपमप्रमाण है अतएव इन कषायों के अनंतभवानुबंधिता घटित नहीं होती है ? आचार्य कहते हैं-यह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि इन कषायों के द्वारा जीव में उत्पन्न हुए संस्कार का अनंतभवों में प्रवस्थान माना गया है । अथवा जिन क्रोध, मान, माया, लोभ का अनुबंध अनंत होता है वे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। इनके द्वारा वृद्धिंगत संसार अनंतभवों में अनुबंध को नहीं छोड़ता है, इसलिये अनंतानुबंध यह नाम संसार का है। यह संसारात्मक अनंतानुबंध जिनके होता है वे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ हैं।"
श्री पूज्यपाद तथा श्री अकलंकवेव ने भी अनंतानुबंधीकषाय का स्वरूप निम्न प्रकार कहा है"अनन्तसंसारकारणत्वान्मिय्यावर्शनं अनन्तं तदनुबंधिनोऽनंतानुबंधिनः क्रोधमानमाया लोभः।"
स० सि० व रा० वा० ८/९ ।
"अनंतसंसारकारणत्वादनंतं मिथ्यात्वं अनुबध्नतीत्यनंतानुबंधिनः।" मूलाराधना पृ० १८०५
इन आर्ष ग्रन्थों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अनंतानुबंधीकषाय किसी विवक्षित चारित्र का प्रावरण करने वाली नहीं है, क्योंकि अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के द्वारा चारित्र का अभाव हो जाता है। कहा भी है
"ण चारित्रमोहणिज्जावि, अपच्चक्खाणावरणादीहि आवरिवचारितस्स फलाभावादो।"
अनंतानुबन्धीकषाय चारित्र को मोहन करनेवाली भी नहीं है, क्योंकि अप्रत्याख्यानावरणादि कषायों के द्वारा प्रावरण किये गये चारित्र के आवरण करने में फल का अभाव है।
जब अनन्तानुबन्धीकषाय चारित्र का आवरण नहीं करती है तो उसको चारित्रमोहनीय प्रकृति क्यों कहा गया है? इसका समाधान निम्न प्रकार दिया गया है
"ण चाणंताराबंधिचउक्कवावारी चारित्ते णिफले, अपच्चक्खाणादि अणंतोदयपवाहकारणस्स णिप्फलतविरोहा।"
चारित्र में अनन्तानुबन्धी चतुष्क का व्यापार निष्फल भी नहीं है, क्योंकि चारित्र के घातक अप्रत्याख्यानावरणादि के उदय को अनन्त प्रवाह में कारणभूत अनन्तानुबन्धीकषाय के निष्फलत्व का विरोध है।
अनन्तानुबन्धीकषाय विवक्षित चारित्र का प्रावरण न करने पर भी चारित्र को प्रावरण करने वाली पप्रत्याख्यानावरणादि कर्मप्रकृतियों के उदय को अनन्त प्रवाहरूप कर देती है इसलिये अनन्तानुबन्धी कषाय को चारित्रमोहनीयकर्म कहा गया है ।
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