________________
व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ८५१ तक तारतम्यपूर्वक शुद्धोपयोग और अन्तिम दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल कहा गया है, ऐसा वर्णन कथंचित् हो सकता है।"
यह कथन किस पार्ष वाक्यों के आधार से किया गया है ?
समाधान-भावार्थ में उपर्युक्त कथन प्रवचनसार गाथा नं. ९ पर श्री जयसेन आचार्य को टीका के प्राधार पर किया गया है, किन्तु उस टीका में "ऐसा वर्णन कथंचित् हो सकता है।" इसका द्योतक कोई शब्द नहीं है। श्री जयसेन आचार्य ने टीका में इस प्रकार कहा है
"किंच जीवस्थासंख्येलोकमात्रपरिणामाः सिद्धान्ते मध्यम प्रतिपत्या मिथ्यारष्ट्यादिचतुर्दशगुणस्थानरूपेण कथिताः। अत्र प्राभृतशास्त्रे तान्येव गुणस्थानानि संक्षेपेण शुभाशुभ-शुद्धोपयोग-रूपेण कथितानिकमितिचेतमिथ्यात्व सासावनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोगः तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोगः, तदनन्तरमप्रमत्तादि क्षीणकषायान्तगुणस्थानषटके तारतम्येन शुद्धोपयोगः, तदनन्तरसयोग्ययोगिजिनगणस्थानद्वये शुद्धोपयोगफलमिति भावार्थः ॥९॥"
श्री जयसेन आचार्य की इस संस्कृत टीका में "ऐसा वर्णन कथंचित हो सकता है।" इसका द्योतक एक भी शब्द नहीं है। सोनगढ़वालों को चतुर्थगुणस्थान में भी शुद्धोपयोग का कथन करना इष्ट है और श्री जयसेनाचार्य ने उपयुक्त टीका में चतुर्थगुणस्थान में मात्र शुभोपयोग का कथन किया है, जो कि सोनगढ़वालों को इष्ट नहीं है । अतः श्री जयसेनाचार्य की उपयुक्त टीका को हलका करने के लिये सोनगढ़वालों ने "ऐसा वर्णन कथंचित् हो सकता है।" ये शब्द अपनी ओर से बढ़ा दिये हैं । जो उचित नहीं है।
चतुर्थगुणस्थान में संयम की भावना होती है, किन्तु मात्र भावना से संयम नहीं हो जाता है। इसीप्रकार चतुर्थगुणस्थान में शुद्धोपयोग की भावना हो सकती है किन्तु मात्र भावना से शुद्धोपयोग नहीं हो जाता।
-जै. ग. 24-4-69/VI/ र. ला. जैन, मेरठ शंका-आंशिक शुद्धता के नाते चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग क्यों न मान लिया जावे ? समाधान-प्रवचनसार गाथा १४ में शुद्धोपयोग से परिणत आत्मा का स्वरूप इसप्रकार कहा है
सुविदिवपयस्थसुत्तो संजमत्व संजुदो विगदरागो।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोवओगोत्ति ॥१४॥ अर्थ-पदार्थों और सूत्रों को भलीभांति जानकर जो संयम और तप में युक्त होकर वीतराग हो गये हैं अर्थात् राग-द्वेष का अभाव कर दिया है और जिनके सुख-दुःख समान हैं ऐसा मुनि शुद्धोपयोगी कहा गया है ।
इस गाथा से इतना स्पष्ट हो जाता है कि शुद्धोपयोग मुनि के हो सकता है श्रावक के शुद्धोपयोग नहीं हो सकता है। प्रत्येक मुनि के भी शुद्धोपयोग नहीं हो सकता है, किन्तु जो मुनि वीतरागी हो गये हैं। अर्थात् जिन मुनियों ने राग-द्वेष का अभाव कर दिया है वे मुनि ही शुद्धोपयोगी हो सकते हैं । फिर चतुर्थगुणस्थान में शुद्धोपयोग कैसे हो सकता है ? चतुर्थगुणस्थान में शुभोपयोग हो सकता है, किन्तु शुद्धोपयोग या उसका अंश भी नहीं हो सकता। उपयोग की एकसमय में शुभ और शुद्ध दो पर्याय नहीं हो सकती हैं। शुभोपयोगरूप पर्याय का व्यय होने पर ही शुद्धोपयोगरूप पर्याय का उत्पाद हो सकता है । शुभोपयोगरूप पर्याय का व्यय तो हो नहीं और शुद्धोपयोगरूप पर्याय के अंश का उत्पाद हो जावे सो संभव नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org