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[२० रतनचन्द जैन मुस्तार
गणस्थान में भी मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतियों का संवर है। वहाँ भी चारित्र का प्रसंग आ जायगा। मिथ्याष्टि के करपलब्धि में ४६ प्रकृतियों का संवर है, अतः मिथ्यादृष्टि के भी चारित्र का प्रसंग आ जायगा ।
कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूतक्रिया पाँच पाप हैं। उन पाँच पापों के त्याग को अथवा सर्वसावधयोग के त्याग को चारित्र कहा गया है। इसीलिये सामायिक आदि के भेद से चारित्र को पाँच प्रकार का कहा गया है
"सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिसूक्ष्मसाम्पराययथाख्यामिति चारित्रम् ।" मोक्षशास्त्र ९।१८
अर्थ-सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यात, यह पांच प्रकार का चारित्र है।
"सकलसावद्ययोगविरतिः सामायिकशुद्धिसंयमः ।" धवल पु० १ पृ० ३६९ अर्थ-सकल सावद्ययोग के त्याग को सामायिकचारित्र कहते हैं।
चतुर्थगुणस्थानवी जीव इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, अतः वह असंयत है। अर्थात् उसके कर्मों के ग्रहण करने में निमित्तभूत पाँच पापरूप क्रिया का त्याग नहीं है ।
णो इंदियेसु विरदो णो जीवे तसे चावि ।
जो सद्दहदि जिगुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥ धवल पु० १ पृ० १७३ अर्थ-जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरक्त नहीं है, किन्तु जिनेन्द्र द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है वह अविरतसम्यग्दृष्टि है। इस अविरत अर्थात् असंयम के कारण उसके अधिक व दृढ़तर कर्मबन्ध होता है।
सम्मादिद्विस्स वि अविरवस्स तवो महागुणो होदि ।
होदि हु हत्यिहाणं चुदच्छिद कम्मतं तस्स ॥ १०॥४९ ॥ मूलाचार संस्कृत टीका-"अपगतारकर्मणो बहुतरोपादानमसंयमनिमित्तस्येति प्रदर्शनाय हस्तिस्नानोपन्यासः। चंद. च्छिदः कर्मव एकत्र वेष्टत्यन्यत्रोदष्टयति तपसः निर्जरयति कर्मासंयमभावेन बहतरं गृजाति कठिनं च करोतीति ॥४९॥"
अविरतसम्यग्दृष्टि का तप उपकारक नहीं है, क्योंकि गज स्नान के समान जितना कर्म प्रात्मा से छूट जाता है उससे बहतर कर्म प्रसंयम से बंध जाता है अथवा जैसे बर्मा का एक पार्श्वभाग रज्जू से दृढ़ वेष्ठित होता है और दसरा मक्त होता है वैसे ही तप से असंयतसम्यग्दृष्टि जितनी कम निर्जरा करता है उससे अधिक व हद कर्मबंध असंयम के द्वारा कर लेता है। अतः चतुर्थगुणस्थान में चारित्र या संयम नहीं है।
-जं. ग. 30-4-70/1X/ र. ला. जन, मेरठ शंका-सोनगढ़ से प्रकाशित प्रवचनसार गाथा ९ के भावार्थ में लिखा है -
"सिद्धान्त ग्रन्थों में जीव के असंख्यपरिणामों को मध्यम वर्णन से चौदह-गुणस्थानरूप कहा गया है। उन गणस्थानों को संक्षेप से 'उपयोग'रूप वर्णन करते हुए, प्रथम तीन गुणस्थानों में तारतम्य पूर्वक ( घटता हुआ) अशुभोपयोग, चौथे से छठे गुणस्थान तक तारतम्य पूर्वक ( बढ़ता हुआ ) शुभोपयोग, सातवें से बारहवें गुणस्थान
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