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व्यक्तित्व और कृतित्व ।
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गम्भीर से गम्भीर प्रमेयों के सम्बन्ध-सन्दर्भ में उनका दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट था और तत्त्व की व्याख्या करने का ढंग उनका इतना सरल था कि धर्म का "क ख ग" जानने वाला भी उसे आसानी से हृदयंगम कर लेता था। वे नपा-तुला और सन्तुलित बोलते थे। उनके प्रात्मीयतापूर्ण व्यवहार एवं सरल-शान्त सौम्य व्यक्तित्व का जो अचिन्त्य प्रभाव मेरे हृदय पर पड़ा है, वह अमिट है।।
वार्ता की समाप्ति पर उनका चरणस्पर्श करते समय मुझे पंडित प्रवर आशाधरजी का यह कथन स्मरण हो पाया
"जनश्रु ततदाधारौ, तीथं द्वावेव तत्त्वतः । संसारस्तीर्यते ताभ्यां, तत्सेवी तीर्थसेवकः ॥"
अर्थात् जिनवाणी और जिनवाणी के ज्ञाता पण्डित ये दो ही वास्तव में तीर्थ हैं, क्योंकि, ये दोनों ही इस जीव को संसार से तारने वाले हैं। जो इनकी सेवा करते हैं वे ही सच्चे तीर्थसेवक कहलाते हैं।
ऐसे तपस्वी साधक के दर्शनों से मुझे सचमुच तीर्थ-वन्दना जैसा ही प्रानन्द मिला।
यह अणुव्रती आत्मा २८ नवम्बर १९८० ई० शुक्रवार को इस संसार (मनुष्य पर्याय) से चल बसी। अहो ! इस पावन आत्मा का अभाव सदा खटकता रहेगा तथा इनको सम्पूर्ति कोई करेगा, इसमें मुझे संशय है । इस पुनीत प्रजिल के प्रति मेरी सदैव मङ्गल कामना है । मैं आपका अभिवन्दन करता हूँ।
सिद्धान्त ग्रन्थों के पारगामी विद्वान् * डॉ० कस्तूरचन्द कासलीवाल, जयपुर
जैन जगत् में विद्वत्ता एवं ग्रन्थों के सूक्ष्म अध्ययन की दृष्टि से स्व. पं० रतनचन्दजी मुख्तार का नाम अत्यधिक आदर के साथ लिया जाता रहेगा । पण्डितजी साहब यद्यपि अनेक उपाधिधारी विद्वान नहीं थे, लेकिन वे धवला, जयधवला, महाधवला, गोम्मटसार, समयसार आदि उच्चस्तरीय सिद्धान्तग्रन्थों के पारगामी विद्वान थे। दिन-रात स्वाध्याय एवं तत्त्वचर्चा में लगे रहना ही अपने जीवन का सबसे बड़ा उपयोग समझते थे । भगवान् महावीर के २५००वें निर्वाण महोत्सव को किस प्रकार मनाया जावे इस सम्बन्ध में सहारनपुर में एक वृहद् सम्मेलन आयोजित किया गया था। देश के चोटी के विद्वान् समाज के नेतागण एवं कार्यकर्ता गण उसमें सम्मिलित हुए थे। मैं भी अपने साथियों के साथ सम्मेलन में सम्मिलित होने के लिए गया था । सहारनपुर जाने पर आपसे मिलने की इच्छा हुई, लेकिन मालूम पड़ा कि “पण्डितजी सम्मेलनों में कम ही आते हैं; अपने घर पर ही स्वाध्याय एवं तत्वचर्चा में व्यस्त रहते हैं।" आखिर, घर पर जाना पड़ा । वहाँ देखा कि पण्डितजी तो ग्रन्थ खोल कर बैठे हुए हैं और उनके सामने ३-४ श्रावक बैठे हैं, तत्त्वचर्चा चल रही है। थोड़ी देर बैठकर हम भी तत्त्व-चर्चा सुनते रहे; बड़ा आनन्द आया। वास्तव में इस प्रकार की तत्त्वचर्चायें होती रहनी चाहिये; जिससे ग्रन्थों के मर्म को जाना जा सके। महाकवि बनारसीदास, पं० टोडरमलजी व पं० जयचन्दजी के समय में आगरा, जयपूर, मुलतान, सांगानेर, कामां आदि स्थानों पर ऐसी ही तत्त्वचर्चाय व उपदेश आदि होते थे।
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