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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार : तपस्वी साधक * श्री नरेन्द्रप्रकाश जैन, प्राचार्य श्री पी० डी० जैन इन्टरकालेज, फिरोजाबाद
'न स्वाध्यायात्परं तपः' अर्थात् स्वाध्याय से उत्तम अन्य कोई तप नहीं है। जिन्हें संयोग से किसी गृहकूल में अध्ययन करने का अवसर नहीं मिला और न किसी सुयोग्य आचार्य के चरणों में बैठकर नियमित क्रमिक शास्त्राभ्यास का निमित्त ही मिला, वे भी इस तप की सीढ़ियों पर चढ़कर ज्ञान की ऊँचाइयों को स्पर्श करने में समर्थ हुए हैं। उनके इस अनुपम व अद्वितीय पुरुषार्थ पर जमाना मुग्ध हो गया। पैसा कमाने, घर बसाने या परिवार बढ़ाने में तो सभी लोग पुरुषार्थ करते हैं, किन्तु आत्मविकास के लिये जो पुरुषार्थ करते हैं धन्य तो वे ही हैं, जीवन तो केवल उनका ही कृतकृत्य है।
स्व० पूज्य विद्वद्वर्य श्री रतनचन्दजी मुख्तार समाज की एक ऐसी ही विभूति थे, जिन्होंने स्वकीय पुरुषार्थ से निर्मल-विमल ज्ञान-गरिमा को उपलब्ध किया था। अथाह आगम सिन्धु में बार-बार डुबकियाँ लगाकर उन्होंने जो रत्न ढूढ़े या प्राप्त किए वे बहुमूल्य हैं और जैन साहित्य-कोष की अक्षय निधि हैं । अपने तीव्र क्षयोपशम से उन्होंने दर्शन की अनेक दुरूह गुत्थियों को इतनी सरलता से सुलझाया था कि बड़े-बड़े विद्वानों को भी उनकी उस अप्रतिम प्रतिभा पर आश्चर्य होता था। 'जैनदर्शन', 'जैन गजट' एवं 'जैन सन्देश' के माध्यम से उनके द्वारा समयसमय पर प्रस्तुत किये गये 'शंका-समाधानों' को यदि पुस्तकाकार छपाने की व्यवस्था कर दी जाय तो यह एक ऐसा सन्दर्भ ग्रन्थ होगा, कि जिसे युगों-युगों तक सहज संभाल कर रखा जायेगा तथा आने वाली पीढ़ियां उससे निरन्तर मार्गदर्शन प्राप्त करती रहेंगी।'
श्रद्धय स्व० मुख्तार सा० के स्वाध्याय-प्रेम की तुलना हम स्व० पण्डित सदासुखदासजी से कर सकते हैं। स्व. पण्डितजी जयपुर के राजपरिवार में नौकरी करते थे। एक बार महाराजा ने उन्हें बुलाकर उनके कार्य की प्रशंसा करते हुए वेतनवृद्धि प्रदान करने की घोषणा की। इस पर पंडितजी ने बड़े विनम्र भाव से निवेदन किया कि वे वेतनवृद्धि नहीं चाहते हैं। इस समय उन्हें जितना वेतन मिल रहा है उतने में उनका निर्वाह भली भांति हो जाता है। उन्होंने महाराजा से आग्रह किया कि यदि वे (महाराजा) सचमुच उन पर प्रसन्न हैं तो वेतनवृद्धि के स्थान पर उनके काम के कुछ घंटे कम कर दें, ताकि वे स्वाध्याय के लिए अधिक समय निकाल सकें । उनके भीतर छिपी ज्ञान की ऐसी अलौकिक ललक को देखकर महाराज इतने भाव-विभोर हुए कि उन्होंने उठकर पण्डितजी को गले लगा लिया तथा स्वाध्याय के लिये उन्हें सभी अपेक्षित सुविधाएँ प्रदान की। मुख्तार सा० तो उनसे भी बढ़कर स्वाध्यायी थे । उन्होंने तो आगम के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिये मुख्तारी के पेशे को ही तिलाञ्जलि
दे दी।
मान्यवर मूख्तार सा० के दर्शन करने का सौभाग्य मुझे तीन वर्ष पूर्व सहारनपुर में ही मिला था, जबकि मैं वहाँ एक बारात में शामिल होकर गया था। आज के सामाजिक, धार्मिक परिवेश पर उनसे लगभग पौन घंटे चर्चा हुई थी। वर्तमान में कुछ विद्वानों द्वारा एकान्त विचारधारा का प्रतिपादन किये जाने से वे चिन्तित थे। उनसे साधसंगति के अनेक प्रेरक संस्मरण भी सुनने को मिले थे। वे हर वर्ष चातुर्मास में अपना अधिकाधिक समय मनियों के चरण सान्निध्य में व्यतीत करते थे तथा उन दिनों अध्ययन-अध्यापन का बढ़िया क्रम चलता था। आगम के
१. प्रस्तुत ग्रन्थ का शंकासमाधानाधिकार देखिए। २. आपके अनुज श्री नेमिचन्दजी के लिये भी यही बात है।
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