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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
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स्वरूपाचरण चारित्र के इस लक्षण से स्पष्ट हो जाता है कि स्वरूपाचरण चारित्र अकषाय जीवों के होता है। इसीलिये स्वरूपाचरण चारित्र को यथाख्यात चारित्र कहते हैं, क्योंकि यथाख्यातचारित्र भी अकषाय जीवों के ही होता है। इसी बात को परमात्मप्रकाश में कहा गया है
"रागद्वेषाभावलक्षणं परमं यथाख्यातरूपं स्वरूपे चरणं निश्चयचारित्रं भणन्ति इदानी तवभावेऽन्यच्चारित्रमाचरन्तु तपोधनाः।"
अर्थ-रागद्वेष के अभावरूप उत्कृष्ट यथाख्यात चारित्र रूप स्वरूप में रमणता ही निश्चय चारित्र है, वह स्वरूपाचरणचारित्र इस समय पंचमकाल में भरत क्षेत्र में नहीं है, इसलिये तपोधन ( साधुजन ) इस स्वरूपाचरणचारित्र के अतिरिक्त अन्य चारित्र का प्राचरण करें।
यहाँ पर स्वरूपाचरणचारित्र का लक्षण रागद्वेष का प्रभाव बतलाया है इसीलिये उस स्वरूपाचरण चारित्र को परमयथाख्यातचारित्र अथवा निश्चयचारित्र कहा गया है। अत! स्वरूपाचरण-चतुर्थ गुणस्थान में नहीं हो सकता है।
शंका-तब फिर चतुर्थ गुणस्थान में कौनसा चारित्र होता है और उसका घातक कौन कर्म है ?
समाधान-चतुर्थ गुणस्थान में चारित्र नहीं होता है, इसीलिये उसकी संज्ञा 'असंयत-सम्यग्दृष्टि' है। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ने गो० जी० में कहा है
"चारित्तं णस्थि जदो अविरदअंतेसु ठाणेसु ॥१२॥" प्रथम चार गुणस्थानों में अर्थात् अविरत सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थानत क चारित्र नहीं होता।
समेतमेव सम्यक्त्वज्ञानाभ्यां चरितं मतम् ।
स्याता विनापि ते तेन गुणस्थाने चतुर्थके ॥७४।५४३॥ उत्तरपुराण अर्थ-सम्यक् चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित ही होता है परन्तु चतुर्थ गुणस्थान में सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान तो होता है, सम्यक् चारित्र नहीं होता है।
"ओवइएण भावेण पुणो असंजदो ॥६॥" ( धवल पु० ५ पृ० २०१) अर्थ-असंयतसम्यग्दृष्टि का असंयतत्व औदयिकभाव है। "संजमघावीणं कम्माणमुबएण जेणेसो असंजदो तेण असंजदो त्ति ओदइओ भावो।"
अर्थ-क्योंकि संयम को घात करनेवाले कर्मोदय से यह असंयत होता है, अतः 'असंयत' औदयिकभाव है।
यदि चतुर्थ गुणस्थान में किंचित् भी संयम मान लिया जायगा तो उसकी संज्ञा असंयतसम्यग्दृष्टि नहीं हो सकती और न ही उसके प्रौदयिकभाव हो सकता है, किंत क्षायोपशमिकभाव होगा। जैसे कि तीसरे गुणस्थान में किंचित् सम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षायोपशमिकभाव कहा गया है उसी प्रकार चतुर्थ गुणस्थान में भी स्वरूपाचरणचारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिकभाव होगा।
"सम्यग्मिथ्यात्वोदयेन औयिक इति किमिति न व्यपदिश्यत इति चेन्न, मिथ्यात्वोदयादिव ततः सम्यक्त्वस्य निरन्वयविनाशानुपमलम्भात् ।" [ धवल पु० १ पृ० १६८ ]
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