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व्यक्तित्व और कृतित्व ]
[ ८०६ (१) प्रायिका की नवधा भक्ति होनी चाहिए
(२) प्रायिका उत्तम पात्र हैं तथा ऐलक द्वारा भी वन्दनीय होती हैं। शंका-नवधाभक्ति में पू० आयिका माताजी को, ऐलक को प्रदक्षिणा, पाव-प्रक्षालन, पूजा आदि करने का विधान आता है क्या ?
समाधान-मूलाचार, आचारसार, मूलाचारप्रदीप आदि शास्त्रों में यह कथन आया है कि जो प्राचार मुनियों के लिये है वही आचार यथायोग्य आर्यिकाओं के लिये है ।
एसो अजाणपि अ समाचारो जहाक्खिओ पुव्वं । सम्वह्मि अहोरत्ते विभासिदव्वो जधाजोग्गं ॥१८७॥ (मूलाचार अ. ४) लज्जाविनयवराग्यसदाचारादिभूषिते । आर्यावाते समाचारः संयतेष्विव किन्त्विह ॥१॥ (आचारसार अ. २) अयमेवसमाचारो यथाख्यातस्तपस्विनाम् ।
तथैवसंयतीनां च यथायोग्यं विचक्षणः॥ ४२ ॥ मूलाचार प्रदीप पृ० २९८ जिसप्रकार यह समाचारनीति मुनियों के लिये बतलाई है, उसीप्रकार लज्जा, विनय, वैराग्य, सदाचार आदि से सुशोभित होनेवाली आयिकाओं को भी इन्हीं समाचारनीतियों का पालन करना चाहिये ।
मूलाचार गाथा १८९ में "तविणयसंजमेसु य अविरहिदुपओगजुत्ताओ" आयिकाओं को तप, विनय, संयम से युक्त कहा है। गाथा १९१ को टीका में "आर्याः संयतिकाः।" अर्थात् आर्या संयमी होती हैं। गाथा १९६ में "ते जगपूज्जं । अर्थात् प्रायिका जगत्पूज्य हैं।" ऐसा कहा गया है ।
जहां पर मुनियों के चारित्र का कथन है वहीं पर आर्यिकानों के चारित्र का कथन है । श्रावकाचार प्रन्थों में प्रायिकाओं के आचार का कथन नहीं है, किन्तु क्षुल्लक आदि ग्यारहवीं प्रतिमा धारियों का कथन श्रावकाचार ग्रन्थों में है।
मुनि, प्रायिका, श्रावक, श्राविका चार प्रकार का संघ है। आर्यिका को श्राविका से पृथक् कहा गया है । मायिका को ग्यारहअङ्ग का ज्ञान हो सकता है और उपचार से महाव्रत हैं (प्रवचनसार पृ. ५३५) तथा आर्यिका दीक्षा दे सकती हैं। अतः आर्यिका की नवधा-भक्ति होनी चाहिये ।
शंका-पू० आयिका माताजी उत्तम पात्र हैं या नहीं ?
समाधान-पू० प्रायिका माताजी के उपचार से महाव्रत हैं । मूलाचार गाथा १८९ में 'संयमेषु उपयोगयुक्तः अर्थात् प्रायिका संयम से युक्त हैं। ऐसा कहा है। मूलाचार गाथा १९१ की टीका में श्री वसुनन्दि सिद्धान्त. चक्रवर्ती आचार्य ने 'आर्याः संयतिकाः अर्थात् प्रायिका संयमी है। ऐसा कहा है। संयमी उत्तमपात्र होते हैं अतः मायिका की गणना उत्तमपात्र में होनी चाहिए। वे श्राविका नहीं हैं, इसलिये वे मध्यम पात्र नहीं मानी जा सकती हैं।
शंका-यदि पू० माताजी को पू. मुनिराज के समान पूर्णरूप से नवधा भक्ति की जाय तो मुनिराज और आयिका में क्या भेव रह गया ?
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