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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार !
उपवास तप एवं चार भुक्ति, षट् भुक्ति, प्रादि का अर्थ शंका-मुनि के २८ मूलगुणों में 'एक भक्त' यह एक मूलगुण है। फिर भी शास्त्र में तीर्थकरादि ने चारभक्त त्याग किया अर्थात् एक उपवास किया, षष्ठभक्त त्याग किया अर्थात बेला किया, अष्टभक्त त्याग किया अर्थात् तेला किया इत्यादि उल्लेख आता है अर्थात् एक दिन में दो भोजन समझकर चार भोजन त्याग को एक उपवास कहा गया है। प्रश्न यह है कि मुनियों के लिये एक दिन में एक ही भोजन त्याग हो सकता है कारण वो भोजन में से एक भोजन तो पहले से ही त्याग हो चुका है, किन्तु मुनियों के लिये चार भोजन त्याग को एक उपवास क्यों कहा गया है ?
समाधान-कर्मभूमिजमनुष्यों का भोजन प्रायः एक दिन में दो बार होता है । एक उपवास में चारभूक्ति का त्याग होता है। धारणा के दिन एकमुक्ति का त्याग, उपवास के दिन दोमुक्ति का त्याग और पारणा के दिन एकभूक्ति का त्याग इसप्रकार चारमुक्ति त्याग से एक उपवास होता है। छह मुक्ति त्याग से बेला अर्थात दो उपवास होते हैं। इसमें भी धारणा के दिन एकमुक्ति का त्याग, प्रथम उपवास के दिन दोमुक्ति का त्याग, दूसरे उपवास के दिन दो मुक्ति का त्याग, पारणा के दिन एकमुक्ति का त्याग । इसप्रकार छहमुक्ति के त्याग से दो उपवास होते हैं । पाठभुक्ति त्याग से तीन उपवास होते हैं, इत्यादि ।
___ गृहस्थ तो एकउपवास, दोउपवास, तीनउपवास आदि की धारणा करते समय क्रमशः चारमुक्ति, छह मुक्ति, पाठभुक्ति आदि का त्याग करता है । मुनि के इनमें से तीन, चार, पांचभुक्ति का त्याग तो मुनि व्रत ग्रहण करते समय ही हो गया था और शेष एक, दो, तीन मुक्ति का त्याग एक उपवास, दो उपवास, तीन उपवास करते समय हो जाता है। इसप्रकार मुनि के भी एक उपवास, दो उपवास, तीन उपवास में क्रमशः चारभक्ति का त्याग, पांचभुक्ति का त्याग, छह मुक्ति का त्याग होता है।
-. ग. 21-8-69/VII/अ. हीरालाल उग्रतप महातप से बिना आहार के भी शरीर का टिकाव बन जाता है शंका-उग्रतप, महातप आदि ऋद्धिधारी मुनि जब महीनों तक का उपवास करते हैं तो क्या वे बाह्य उपकरणों के द्वारा आहार ग्रहण करके अपना शरीर पुष्ट बनाए रखते हैं ? यदि वे आहार ग्रहण नहीं करते तो बिना आहार के उनका शरीर किस प्रकार पुष्ट रहता है ?
समाधान-जिन कोटिपूर्व आयुवाले मनुष्यों को ८ वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान हो जाता है उनका शरीर बिना कवलामाहार के वनली आदि से प्राण वायु के ग्रहण बिना ८ वर्ष कम एककोटिपूर्व तक पुष्ट बना रहता है, क्योंकि उनके आहारवर्गणाओं का स्वयमेव ग्रहण होता रहता है जिससे उनका शरीर पुष्ट बना रहता है। उसीप्रकार उपतप, महातप आदि ऋद्धिधारी मुनियों के भी आहारवर्गणाओं के ग्रहण से शरीर पुष्ट बना रहता है। बाह्यनली आदि के द्वारा प्राणवायु पहुंचाने की आवश्यकता नहीं रहती और न ही वे अन्नादिक कोई पदार्थ ग्रहण करते हैं।
-जं. ग. 5-1-78/VIII/सान्तिलाल वीतराग छद्मस्थों के प्रज्ञा परिषह उपचार से है शंका-अल्पज्ञान तथा तीवकषाय इन दोनों कारणों से ज्ञानमव होता है ऐसा आगम में कहा है। तीनकषायोदय को कारण कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कषाय के सर्वथा अभाव में वीतरागछमस्थ के भी प्रज्ञापरीषह का कथन पाया जाता है।
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